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महावीर वाणी भाग : 2
ऊर्जा सीधी आकाश में लीन हो जाए।
ध्यान रहे, शरीर में ऊर्जा पैदा हो रही है। उसको विसर्जित करने के दो उपाय हैं। एक तो संभोग के द्वारा, तो वह निम्नतम केंद्र से जगत में चली जाती है, प्रकृति में चली जाती है, और दूसरा उपाय है सहस्रार के मार्ग से, श्रेष्ठतम केंद्र से ।
ये दो छोर हैं। और जैसे विद्युत केवल छोर से ही विसर्जित हो सकती है, ऐसे ही इन दो छोरों से जीवन-ऊर्जा विसर्जित होती है। जो व्यक्ति सहस्रार से अपनी जीवन-ऊर्जा को आकाश में छोड़ने में समर्थ हो जाता है, महावीर उसको ही श्रमण कहते हैं। वह कामवासना से बिलकुल.... जितनी दूर संभव हो सकता है, उतनी दूर चला गया है, और उसकी ऊर्जा ने नयी दिशा और नया आयाम ले लिया। यह गुणात्मक अंतर है, इसलिए श्रमण चाहेगा कि बालों को घोट दे ।
आप जानकर हैरान होंगे कि जैन मुनि और बौद्ध भिक्षु बाल घोटते रहे हैं और हिंदू ऋषि-मुनि बाल बढ़ाते रहे हैं, घोटते नहीं रहे हैं। शंकराचार्य ने जरूर हिंदू संन्यासियों के लिए बाल घुटवाने शुरू किये, क्योंकि शंकराचार्य ने अपनी साधना का अधिकतम हिस्सा बौद्धौं से उधार लिया। लेकिन हिंदू ऋषि-मुनि, अगर आप उपनिषदों और वेदों के ऋषि-मुनियों को देखें, तो वे सब दाढ़ी और बालों को पूरी तरह बढ़ाते रहे हैं। उनकी साधना-प्रक्रिया बिलकुल भिन्न है। उस प्रक्रिया में बाल सहयोगी हो जाते हैं ।
जैन साधना में ऊर्जा को विसर्जित करना है । अनंत ब्रह्मांड में ऊर्जा खो जाए, क्योंकि वह ऊर्जा शरीर की ही है, आत्मा की नहीं है। हिंदू साधना में – विशेषकर पतंजलि की साधना में उस ऊर्जा को विसर्जित नहीं करना है, उस ऊर्जा को सहस्रार पर इकट्ठा करना है। दोनों रास्ते अलग हैं। हिंदू साधना में उस ऊर्जा को इकट्ठा करना है एक खास सीमा तक, और जब वह एक खास सीमा तक इकट्ठी हो जाए तभी परमात्मा को समर्पित करनी है।
तो बाल उस ऊर्जा को रोकने में सहयोगी हैं। हिंदू संन्यासियों का बाल का घोटना, सिर को मुंडाना शंकराचार्य के बाद प्रारंभ हुआ और गति पकड़ गया लेकिन वह बौद्ध परंपरा से आयी हुई धारणा है। साधकों ने जो भी चुना है, उसके पीछे कुछ कारण हैं । और, अ कारण खयाल में न हों और अंधों की भांति लोग चलते जाएं, तो उससे कोई लाभ नहीं होता, कभी नुकसान भी हो सकता है।
महावीर और बुद्ध शीर्षासन के पक्ष में नहीं और उन्होंने योगासनों को कोई मूल्य नहीं दिया। पतंजलि, हिंदू योग का मूल आधार जिसने रखा, वह शीर्षासन के बहुत पक्ष में है। जो आदमी शीर्षासन करता है उसके लिए बालों का होना बिलकुल जरूरी है, नहीं तो खतरा होगा, नुकसान होगा। क्योंकि जब आप शीर्षासन में खड़े होते हैं तो जीवन-धारा पूरी की पूरी सिर की तरफ बहती है। अगर उसको रोकने का कोई उपाय न हो तो शीर्षासन के बाद आप अपने को बिलकुल निस्सत्व और कमजोर पायेंगे। उसे रोकना चाहिए। इसलिए हिंदू मुनि जटाएं बढ़ाता था, जितनी बड़ी कर सकता था । कभी नहीं कटाता था, उनको बढ़ाते चला जाता था। उनकी वह पगड़ी बना लेता था, और उस पगड़ी पर शीर्षासन करता था। वह पगड़ी सिर और पृथ्वी के बीच अंतराल का काम करती थी, नहीं तो पृथ्वी झटके से ऊर्जा को खींच लेती । और वह झटके से ऊर्जा का खींचना बड़ा खतरनाक हो सकता है। वह शरीर को कई तरह के नुकसान पहुंच सकता है। कई दफा जिंदगी में बड़ी उलझनें हो जाती हैं। शंकराचार्य ने मुंडा तो कर दिया हिंदू संन्यासियों को, लेकिन शीर्षासन करने से नहीं रोका।
अकारण कुछ भी नहीं है। छोटा-सा नियम भी जब ज्ञानियों ने चुना है, तो उसके पीछे उनके अपने कारण हैं। महावीर किसी और प्रक्रिया पर काम कर रहे हैं, तो वे कहते हैं कि यह हो सकता है कि श्रमण होकर कोई सिर मुंडा ले, लेकिन सिर मुंडा लेने से कोई श्रमण नहीं होता। और अच्छा है उन्होंने यह कह दिया। क्योंकि वैज्ञानिक कहते हैं कि चार हजार साल के बाद बच्चे मुंडे ही पैदा होंगे। जैन साधु को बड़ी तकलीफ होगी तब ।
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