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अलिप्तता और अनासक्ति का भाव-बोध
वे अनुभव हैं।
उचित होगा कि हम आर्मस्ट्रांग की बात मान लें चांद के संबंध में, बजाय महावीर की बात के। हम आइंस्टीन की बात मान लें पदार्थ के संबंध में, बजाय कृष्ण के । उसका कारण यह है कि बाहर के जगत में जो खोज चल रही है वह खोज रोज बढ़ती चली जायेगी। आज मैं आपसे जो बातें कह रहा हूं, उसमें जब भी मैं बाहर के जगत के संबंध में कुछ कहता हूं तो वह आज नहीं कल गलत हो जायेगा। गलत हो जायेगा, उससे ज्यादा ठीक खोज लिया जायेगा। लेकिन तब भी जो मैं भीतर के जगत के संबंध में कह रहा हूं, वह गलत नहीं हो जायेगा । वह मैं अपने अनुभव से कह रहा हूं।
सूचना और ज्ञान का अगर यह फासला हम न रख पाये तो आज नहीं कल, बुद्ध, महावीर, कृष्ण सब नासमझ मालूम होने लगेंगे। यह फासला रखना जरूरी है। __ आपके प्रश्न पर निर्भर करता है कि मैं उत्तर कहां से दे रहा हूं। कुछ उत्तर तो केवल स्मृति से ही दिये जा सकते हैं। क्योंकि बाहर के संबंध में स्मृति ही होती है, ज्ञान नहीं होता है। भीतर के संबंध में ज्ञान होता है, स्मृति नहीं होती। तो आप क्या पूछते हैं, इस पर निर्भर करता है।
दूसरी बात-पूछते हैं कि अगर भीतर का ज्ञान हो गया हो तो फिर शास्त्र, साहित्य, पुस्तक, इसका क्या प्रयोजन है?
इसका प्रयोजन है, आपके लिए, मेरे लिए नहीं। आज मेरे पास कोई आ जाता है पूछने, या महावीर के पास, या बुद्ध के पास आ जाता था पूछने, चांद के संबंध में, तो महावीर कुछ कहते थे। महावीर को कोई प्रयोजन नहीं है चांद से, लेकिन जो पूछने आया था, उसका प्रयोजन है। लेकिन इसे भी कहने की क्या जरूरत है? __ कारण है। मेरे पास ऐसे लोग आते हैं। कोई फ्रायड को पढ़कर विक्षिप्त हुआ जा रहा है, तो वह मेरे पास आता है। जब तक मैं फ्रायड के संबंध में उसे कुछ न कह सकू तब तक उससे मेरा कोई सेतु निर्मित नहीं होता । जब उसे यह समझ में आ जाता है कि मैं फ्रायड को समझता हूं, तभी आगे चर्चा हो पाती है, तभी आगे बात हो पाती है। मेरे पास कोई आदमी आइंस्टीन को समझकर आता है, और अगर मैं पिटीपिटायी तीन हजार साल पुरानी फिजिक्स की बातें उससे कहं, तो मैं तत्काल ही व्यर्थ हो जाता है। आगे कोई संबंध ही नहीं जुड़ पाता। अगर मुझे उसे कोई भी आंतरिक सहायता पहुंचानी है तो उसे मैं बाहर के जगत में उतना तो कम से कम मैं जानता ही हूं, जितना वह जानता है, इतना भरोसा दिलाना अत्यन्त आवश्यक है। इस भरोसे के बिना उससे गति नहीं हो पाती, उससे संबंध नहीं बन पाता।
आज साधुओं संन्यासियों से आम आदमी का जो संबंध टूट गया है, उसका कारण यह है कि आम आदमी उनसे ज्यादा जानता है बाहर के जगत के संबंध में । और जब आम आदमी भी उनसे ज्यादा जानता है तो यह भरोसा करना आदमी को मुश्किल होता है कि जिन्हें बाहर के जगत के संबंध में भी कुछ पता नहीं, वह भीतर के संबंध में कुछ जानते होंगे । आज हालत यह है कि आपका साध आपसे कम जानकार है। महावीर के वक्त का साधु आम आदमी से ज्यादा जानकार था। ____ आपसे अगर कोई भी संबंध निर्मित करना है, तो पहले तो आपका जो बाह्य ज्ञान है, उससे ही संबंध जुड़ता है और जब तक मैं आपके बाह्य-ज्ञान को व्यर्थ न कर दूं तब तक भीतर की तरफ इशारा असंभव है। अपने लिए नहीं पढ़ता हूं, आपके लिए पढ़ता हूं। उसका पाप आपको लगेगा, मुझको नहीं।
और यह, मैं ऐसा कर रहा हूं, ऐसा नहीं है। बुद्ध या महावीर या कृष्ण सभी को यही करना पड़ा है। करना ही पड़ेगा। अगर कृष्ण अर्जुन से कम जानते हों बाहर के जगत के संबंध में, तो बात आगे नहीं चल सकती। अगर महावीर गौतम से कम जानते हों बाहर
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