SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 383
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अलिप्तता है ब्राह्मणत्व कर्ता रहें, द्रष्टा हो जायें। इसे थोड़ा उपयोग करें। जरूरी नहीं कि सीधा संभोग से ही शुरू करें। इसे कहीं भी उपयोग करें। भोजन करते वक्त कर्ता न बनें, साक्षी हो जायें। रास्ते पर चलते वक्त चलने वाले न बनें, शरीर चल रहा है, आप देख रहे हैं। इसे जीवन के सब पहलुओं पर फैलायें, और धीरे-धीरे साक्षी को संभालें। जैसे-जैसे साक्षी भीतर संभलता है, एक नये जीवन का उदय होता है । आपके शरीर में पंख लग जाते हैं । अब आप आकाश में उड़ सकते हैं। अब परमात्मा दूर नहीं है। और जैसे-जैसे दूरी बढ़ती है शरीर से, वैसे-वैसे नये सुख के स्रोत टूटते हैं, बुद्ध ने कहा है महासुख। और जैसे ही इस स्रोत के झरने टूटने लगते हैं, फिर शरीर के सुखों में कोई अर्थ नहीं रह जाता है; मूढ़ता हो जाती है । ध्यान रहे, जब तक कामवासना में अर्थ है, तब तक आप छुटकारा नहीं पा सकेंगे, तब तक ब्राह्मण का जन्म नहीं होगा । जिस दिन कामवासना में अर्थ ही नहीं रह जाता है, कामवासना से भी बड़े आनंद का झरना फूट पड़ता है और कामवासना सिर्फ मूढ़ता रह जाती है, नासमझी रह जाती है; ठीक वैसे ही जैसे आपके हाथ में हीरा है, और कोई आपको गाली दे दे, तो आप हीरा उठाकर पत्थर की तरह फेंक नहीं देंगे । आप कहेंगे, पागलपन है। हीरा बहुत कीमती है, इस आदमी को मारने की बजाय । लेकिन आपको अगर पता न हो और आप समझें कि यह पत्थर है, तो बराबर मार देंगे; हीरा है, तो नहीं फेंककर मारेंगे। कामवासना में जिस शक्ति को आप फेंक रहे हैं अपने बाहर, आपको पता नहीं है वह क्या है। वह जीवन की धारा है। वह जीवन का परम गुह्य रहस्य । एक बार आपको पता चल जाये कि यह धारा भीतर की तरफ बह सकती है और सुखों के महल खुल जाते हैं, और नये द्वार खुलते ही चले जाते हैं। फूल खिलते ही चले जाते हैं। वीणा का संगीत बढ़ता ही चला जाता है। लेकिन यह आपको अपने अनुभव से जब आये...! महावीर के कहने से कुछ भी न होगा। मेरे कहने से कुछ भी न होगा। किसी के कहने से कुछ नहीं हो सकता। इतना ही हो सकता है कि स्मरण आ जाये कि यह भी एक संभावना है, बस । लेकिन जब आप प्रयोग करें... ! प्रयोग 'बहुत 'से लोग करते हैं, लेकिन उनको ठीक प्रक्रिया का खयाल न होने से दमन में उलझ जाते हैं; शरीर से लड़ने लगते हैं । शरीर से लड़ना नहीं है, शरीर से दूर होना है; क्योकि लड़ने में भी आप शरीर के करीब ही होते हैं। भोगने में भी करीब होते हैं, लड़ने में भी करीब होते हैं। भोगने में भी शरीर से जुड़े होते हैं, लड़ने में भी शरीर से जुड़े होते हैं। और दोनों हालत में शरीर का मूल्य आप से ज्यादा होता है । उस मूल्य को कम करना है। जो शरीर से लड़ रहा है उसके शरीर का मूल्य कम नहीं होता है । देखें साधुओं को ! उनके शरीर का मूल्य और बढ़ जाता है— कोई छू न ले, वे किसी को छू न लें। घबड़ाहट बढ़ जाती है। शरीर से इतनी घबड़ाहट का मतलब है कि और करीब हो गये शरीर के । T मेरे पास कुछ मित्र आते हैं। वे कहते हैं कि कुछ जैन साधु यहां आश्रम में आना चाहते हैं, बैठने का अलग इंतजाम करना पड़ेगा । क्या जरूरत है अलग इंतजाम करने की? मैंने कहा कि मंच पर बैठ जायेंगे। पर वे कहते हैं वहां कई स्त्रियां बैठती हैं। अब स्त्रियों से साधुओं को क्या लेना-देना? जब स्त्रियां नहीं डर रही हैं साधुओं से, तो साधु क्यों डर रहे हैं स्त्रियों से? ये साधु तो स्त्रियों से भी कमजोर और स्त्रैण मालूम पड़ते हैं। इतनी कमजोरी का मतलब है कि शरीर के और करीब आ गये - कि दूर गये? अगर दूर जायें तो स्त्री और पुरुष के शरीर में फर्क कम हो जाना चाहिए; बढ़ना नहीं चाहिए। तब शरीर ही हैं दोनों, फर्क क्या है? स्त्री और पुरुष के शरीर में साधु को क्या फर्क है? क्यों होना चाहिए फर्क ? फर्क पैदा होता है वासना से । एक अजायबघर में एक हिपोपोटेमस पानी में तैर रहा है। दूसरा हिपोपोटेमस भी उसी के पास विश्राम कर रहा है। मुल्ला नसरुद्दीन गया है देखने। तो अजायबघर के आदमी से पूछता है कि इसमें कौन स्त्री है और कौन पुरुष ? हिपोपोटेमस, इसमें कौन स्त्री और कौन Jain Education International 369 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001821
Book TitleMahavira Vani Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy