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अलिप्तता है ब्राह्मणत्व
उनकी बात में थोड़ी सच्चाई है। अगर कोई सिर्फ रोकेगा, तो रुग्ण हो जायेगा। उनकी बात में झूठ भी है। कोई अगर सिर्फ भोगता ही चला जायेगा, तो भी नष्ट हो जायेगा ।
पूरब की दृष्टि न तो भोग और न दमन, वरन दोनों के ऊपर उठने की है ताकि चेतना शरीर को अपने नीचे पा सके । शरीर की जो पकड़ चेतना के ऊपर है, गर्दन पर है चेतना के, वह छूट जाये । मालिक हो सके चेतना, और शरीर उसकी छाया रह जाये ।
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कामवासना में जब भी आप डूबते हैं, तब शरीर मालिक हो जाता है और आत्मा उसकी छाया रह जाती है, उसके पीछे सरकती है। बहुत बार तो आप नहीं भी चाहते तो भी कामवासना में डूबते हैं। तब आपकी आत्मा का कोई मूल्य नहीं रह जाता। तब उसकी कोई सुनवाई नहीं रह जाती। तब शरीर इतना प्रगाढ़ हो जाता है कि आत्मा को दबा देता है; उसकी छाती पर बैठ जाता है।
महावीर कहते हैं—हम उसे ब्राह्मण कहते हैं, जो मैथुन की समस्त कामना के पार और ऊपर हो गया है। यह हुआ जा सकता है; दमन से नहीं। लेकिन महावीर के साधु भी दमन ही कर रहे हैं। क्योंकि दमन आसान है; सुगम है। साक्षी भाव बहुत कठिन है, बहुत दुर्गम है।
वासना जब उठे, तब उससे दूर खड़े रहना और तादात्म्य को तोड़ लेना । वासना को उठने देना। न तो उसे बाहर किसी पर प्रगट करने जाना, और न उसे भीतर दबाना । निष्पक्ष खड़े रहना भीतर और जो हो रहा है, उसे देखते रहना, और होने देना भीतर जो हो रहा है। लेकिन दूर खड़े होकर देखने की क्षमता विकसित करना । जितना डिस्टेन्स, जितना फासला आप में और आपकी वासना के धुएं में हो जाये, उतने आप मालिक होते जायेंगे । और जैसे-जैसे दूरी बढ़ेगी, वैसे-वैसे आप चकित होंगे कि एक नये आनंद की धुन बजने लगी, जिससे आप अपरिचित हैं।
यह आप ठीक संभोग करते क्षण में भी दूरी रख सकते हैं।
मेरे पास लोग आते हैं । एक महिला ने मुझे आकर कहा कि साक्षी भाव मैं रखना चाहती हूं, लेकिन पति हैं । और अगर मैं संभोग में नहीं उतरती हूं,तो पति दुखी और परेशान और पीड़ित होते हैं, चिड़चिड़े हो जाते हैं; झगड़ा करते हैं, उपद्रव खड़ा करते हैं । तो मुझे संभोग में उतरना तो मेरा कर्तव्य है ।
मैंने कहा, 'तू संभोग में उतर, लेकिन संभोग के क्षण में भी दूरी बनाये रखना, जैसे संभोग तुझसे नहीं हो रहा है, सिर्फ शरीर से हो रहा है और तू पार होकर दूर रहना । जितनी तू शांत रहेगी, शांति के लक्षण साफ हो जायेंगे, तेरी श्वास में फर्क नहीं होगा। पति संभोग करता रहेगा, उसकी श्वास में फर्क हो जायेगा। श्वास तेज चलने लगेगी । श्वास सीमा के बाहर हो जायेगी । लेकिन तेरी श्वास शांत बनी रहेगी ।
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'श्वास पर ध्यान रखना और अपने को दूर रखना, और देखना कि पति जैसे किसी और के साथ संभोग कर रहा है।'
तो ठीक संभोग के क्षण में भी साक्षी भाव साधा जा सकता है। और एक बार इसका खयाल आ जाये कि मैं शरीर से दूर हूं, शरीर के साथ क्या हो रहा है वह मेरे साथ नहीं हो रहा है, शरीर में क्या हो रहा है वह मुझमें नहीं हो रहा है, ऐसी प्रतीति सघन होने लगे, तो एक नयी धुन बजनी शुरू हो जाती है। क्योंकि जैसे ही हम शरीर से दूर हटते हैं, वैसे ही हम आत्मा के करीब आते हैं।
आनंद का अर्थ है आत्मा के करीब आने से जो सुवास मिलती है, जो हल्का शीतल हवा का झोंका आता है, वह जो गंध आती है अनूठी, जिसे कभी हमने जाना नहीं। और एक दफा उसका हमें स्वाद पकड़ ले, तो हम शरीर की तरफ पीठ करके उसकी तरफ दौड़ने लगते हैं।
बड़ा आनंद छोटे आनंद से निश्चित ही मुक्ति दिला देता है। और कोई उपाय भी नहीं है। और जब तक आपको बड़े आनंद का पता नहीं है, तब तक छोटे, क्षुद्र आनंद से छूटने में आप व्यर्थ ही परेशान होंगे। कुछ होगा नहीं। बड़े आनंद को जन्मा लें, छोटे आनंद से
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