SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 372
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ब्राह्मण-सूत्र : 2 दिव्व- माणुस - तेरिच्छं, जो न सेवइ मेहुणं । मणसा काय-वक्वेणं, तं वयं बूम माहणं ।। जहा पोम्मं जले जायं, नोवलिप्पइ वारिणा । एवं अलित्तं कामेहिं, तं वयं बूम माहणं ।। आलोलुयं मुहाजीविं, अणगारं अकिंचणं । असंसत्तं गिहत्थेसु, तं वयं बूम माहणं ।। जो देवता, मनुष्य तथा तिर्यंच संबंधी सभी प्रकार के मैथुन का मन, वाणी और शरीर से कभी सेवन नहीं करता, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं । जिस प्रकार कमल जल में उत्पन्न होकर भी जल से लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार जो संसार में रहकर भी काम-भोगों से सर्वथा अलिप्त रहता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं । जो अलोलुप है, जो अनासक्त - जीवी है। जो अनगार (बिना घरबार का ) है । जो अकिंचन है, जो गृहस्थों के साथ आने वाले संबंधों में अलिप्त है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं । Jain Education International 358 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001821
Book TitleMahavira Vani Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy