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कौन है पूज्य ?
अलग गांव मानते हैं; फिर सांताक्रुज चले गये तो अलग गांव; फिर मैरीन ड्राइव आ गये तो अलग गांव; तो पचीसों साल बम्बई में बिता देते हैं।
आदमी की चालाकी इतनी है कि महावीर हों, कि बुद्ध, कि कृष्ण, वह सबको रास्ते पर रख देता है। तुम कुछ भी करो, वह तरकीब निकाल लेता है, और सब योजना से चलता है। महावीर का मतलब इतना है केवल कि साधक योजना न बनाये, प्लानिंग न करे, आयोजित । गृहस्थ का अर्थ है कि वह योजना करेगा, कल का विचार करेगा, परसों का विचार करेगा, वर्ष का, दो वर्ष का, पूरे जीवन का विचार करेगा । वह संसारी का लक्षण है । साधु का लक्षण महावीर कहते हैं, वह कल का विचार न करे, आज जो हो— उसे जीता रहे । और जो उनकी साधना को मानकर चलते हैं, उन्हें चालाकियां नहीं खोजनी चाहिये। चालाकियां ही खोजनी हों तो उनकी साधना नहीं माननी चाहिये । और साधनाएं हैं दूसरी, हट जाना चाहिये। जिस गुरु के पीछे चलना हो, पूरा चलना चाहिये, तो ही कहीं पहुंचना हो सकता है। अन्यथा बेहतर है, किसी और गुरु के पीछे चलो।
कि
पूरे चलने से कोई पहुंचता है। पूरे भाव से संयुक्त होने से कोई पहुंचता है। गुरुओं का उतना सवाल नहीं है। महावीर के पीछे चलो, बुद्ध, ,कि कृष्ण, कि क्राइस्ट, , कि मुहम्मद, कोई बड़ा फर्क नहीं है। रास्ते अलग-अलग हैं, लेकिन एक शर्त सबके साथ है कि जिसके साथ चलो, फिर पूरे भाव से चलो, फिर चालाकियां मत खोजो। गुरु के साथ खेल मत खेलो, क्योंकि खेल में तुम्हीं हारोगे, गुरु को हराने का कोई उपाय नहीं है। क्योंकि हराने का कोई सवाल नहीं है।
मेरे पितामह, मेरे दादा कपड़े की दुकान करते थे। मैं जब छोटा था, तब मुझे उनकी बातें सुनने में बड़ा रस आता था । क्योंकि वे कभी-कभी कम बोलते थे, लेकिन ग्राहकों से कभी-कभी वह ऐसी बात कह देते थे जो बड़ी मतलब की होती थी। ग्रामीण थे, अशिक्षित थे, मगर बड़ी चोट की बात कहते थे । वे ग्राहक को एक ही भाव कहना पसंद करते थे। तो एक ही भाव कह देते कि यह साड़ी दस रुपये की है। अगर ग्राहक मोल-भाव करता तो वे उसे कहते कि देख, तरबूज छुरी पर गिरे कि छुरी तरबूज पर, दोनों हालत में तरबूज कटेगा । अगर तुझे मोल-भाव करना हो तो वैसा कह दे; यह साड़ी अलग कर देते हैं, दूसरी साड़ी तेरे सामने लाते हैं। मगर ध्यान रखना, कटेगा तू ही; चाहे मोल-भाव कर और चाहे एक भाव कर । छुरी कटनेवाली नहीं है। दुकानदार कैसा कटेगा ?
जब भी मैं गुरु-शिष्य के संबंध में सोचता हूं, मुझे उनकी बात याद आ जाती है । शिष्य ही कटेगा; गुरु के कटने का कोई उपाय नहीं है। वह अब है ही नहीं जो कट सके। इसलिए चालाकी कम से कम गुरु के साथ मत करना। लेकिन सारे साधु-संन्यासी यही कर रहे हैं; अपने को बचाये रखते हैं तरकीबें निकालकर, और धोखा भी देते रहते हैं कि वे पालन कर रहे हैं, और महावीर के साथ चल रहे हैं।
मत चलो। कोई महावीर का आग्रह नहीं है। कोई जरूरत भी नहीं हैं चलने की, अगर पसंद नहीं है। वहां चलो जो पसंद है, लेकिन जहां भी चलो, पूरे मन से ।
‘जो संस्तारक, शय्या, आसन, और भोजन - पान आदि का अधिक लाभ होने पर भी अपनी आवश्यकता के अनुसार थोड़ा ग्रहण करता है, संतोष की प्रधानता में रत होकर अपने आपको सदा संतुष्ट बनाये रखता है, वही पूज्य है ।'
गृहस्थ का लक्षण है, सदा अभाव में जीना। वह उसका मूल लक्षण है। हमेशा जो उसे चाहिये, वह उसके पास नहीं है । जिस मकान में आप रह रहे हैं, वह आपको चाहिये नहीं । आपको चाहिये कोई बड़ा, जो नहीं है। जिस कार में आप चल रहे हैं वह आपके लिए नहीं 1 आपको कोई और गाड़ी चाहिये, जो नहीं है। जो कपड़े आप पहन रहे हैं, वह आपके योग्य नहीं हैं। आपको कोई और कपड़े चाहिये । जिस पत्नी के साथ आपका विवाह हो गया है, वह योग्य नहीं है। आपको कोई और स्त्री चाहिये ।
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