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महावीर वाणी भाग : 2
'विनय' है पहली शर्त । विनय का अर्थ है : स्वयं को 'ना-कुछ' की अवस्था में ले आना। 'ना-कुछ' हूं, ऐसा बोध भी न पकड़े । इतना जो विनम्र आदमी है, उसे गुरु उपलब्ध होगा । और अगर आप उसे खोजने भी न जायें तो वह आपको खोजते हुए आ जायेगा ।
जीवन के अंतर्नियम हैं। जहां भी जरूरत होती है गुरु की, वहां जिनके जीवन में भी जागृति का फूल खिला है, उनको अनुभव होना शुरू हो जाता है। जैसे प्रकृति में होता है कि जहां बहुत गर्मी हो जायेगी वहां हवा के झोंके भागते हुए आ जायेंगे। जब हवा आती है तो आपको पता है, क्यों आती है ? हवा अपने कारण नहीं आती। जहां गर्म हो जाता है बहुत, विज्ञान के हिसाब से जहां गर्मी ज्यादा हो जाती है वहां की हवा विरल हो जाती है, कम सघन हो जाती है, ऊपर उठने लगती है गर्म होकरर वहां गड्ढा हो जाता है। उस गड्ढे को भरने के लिए आसपास की हवाएं दौड़ पड़ती हैं। आप पानी भरते हैं, एक मटकी में नदी से, गड्ढा हो जाता है। जैसे ही गड्ढा हुआ कि आसपास का पानी दौड़कर गड्ढे को भर देता है ।
ठीक ऐसा ही आत्मिक जीवन का नियम है कि जब भी कोई व्यक्ति मिट जाता है, तो कोई जो शिखर को उपलब्ध है, दौड़कर उसको भर देता है। लेकिन वे सूक्ष्म जगत के नियम हैं; इतने साफ नहीं हैं। ईजिप्ट में कहा जाता है कि 'व्हेन दि डिसाइपल इज रेडी, दि मास्टर ऐपियर्स—जब शिष्य तैयार है तो गुरु उपस्थित हो जाता है।' शिष्य को गुरु खोजना नहीं पड़ता, गुरु शिष्य को खोजता है; क्योंकि जरूरत पैदा हो गयी, तो जिसके पास है वे देने को दौड़ पड़ेंगे। पात्र तैयार हो गया। जिनके पास है, वे उसे भर देंगे, क्योंकि जिनके पास है, वे अपने होने से भी बोझिल होते - ध्यान रखें।
जैसे वर्षा के बादल होते हैं, भर जाते हैं पानी से तो बोझिल हो जाते हैं; अगर न बरसें तो भार होता है। जैसे मां है : गर्भ हो गया, बच्चा आ गया, तो उसके स्तन भर जाते हैं दूध से । वह न बच्चे को दे, तो पीड़ा होगी। अगर बच्चा मर भी जाये तो वह पड़ोस के किसी बच्चे को दूध देगी, क्योंकि देना हिस्सा है अब - भर गयी है। नहीं निकलेगा दूध तो कठिनाई होगी। तो यंत्र बनाये गये हैं। अगर बच्चा मर जाये तो स्तन दूध निकालने के लिए यंत्र बनाये गये हैं, जो बच्चे की तरह दूध को खींच लें।
जब कहीं ज्ञान सघन होता है, जब कहीं ज्ञान उत्पन्न होता है, तो जैसे स्तन मां के भर जाते हैं, ऐसे गुरु का हृदय भर जाता है। वह चाहता है कि कोई आ जाये और उसे हल्का कर दे।
तो जब आप तैयार हैं तो गुरु मौजूद हो जाता है। आप खोजने जाते हैं, तो गलती में हैं। पहले आप मिटें और मिटकर आप चल पड़ें; गुरु आपको पकड़ लेगा। और आप निर्णय करेंगे तो भटकते रहेंगे। आप निर्णय करने की स्थिति में नहीं हैं; हो भी नहीं सकते । तब डर लगता है कि यह अंधश्रद्धा हो जायेगी । तर्क कहेगा कि यह तो अंधी बात हो जायेगी, तब हम कुछ भी नहीं !
अगर तर्क अभी न थका हो तो तर्क करके कुछ और उपाय करके खोजने की व्यवस्था कर लें। एक घड़ी आयेगी कि आप तर्क से थक जायेंगे । और एक घड़ी आयेगी कि आप जान लेंगे इस बात को कि जिसे भी आप खोजते हैं, वह आप ही जैसा गलत है। इस विषाद के क्षण में ही आदमी अपनी खोज बंद करता है; खुद मिटकर एक सूना पात्र होकर घूमता है। जहां भी कोई भरा हुआ व्यक्ति होता है - जैसे हवा दौड़ पड़ती है खाली जगह की तरफ, पानी दौड़ पडता है गड्ढे की तरफ, मां का दूध बहता है बच्चे की तरफ - ऐसा गुरु बहने लगता है शिष्य की तरफ ।
इस घड़ी में जो मिलन है, इस घड़ी में जो गुरु शिष्य के बीच मिलन है, वह इस जगत की महत-से महत घटना है। जिनके जीवन में वह घटना नहीं घटी, वे अधूरे मर जायेंगे। उन्होंने एक अनूठे अनुभव से अपने को वंचित रखने का उपाय कर रखा है।
इससे बड़े सुख का क्षण पृथ्वी पर कभी भी नहीं होता, जब आप पात्र की तरह खाली होते हैं, और कोई भरा हुआ व्यक्ति आपकी तरफ बहने लगता है। लेकिन इस बहाव के लिये ग्राहक होना जरूरी है, और ग्राहक वही हो सकता है जो आलोचक नहीं है। आलोचक
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