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________________ समय और मृत्यु का अंतबोध एक बूढ़ी औरत का मुर्गा बांग देता था एक गांव में । तो वह सोचती थी, सूरज उसी की वजह से उगता है । न मुर्गा बांग देगा, न सूरज उगेगा । अब यह बिलकुल तर्कयुक्त था। क्योंकि रोज जब मुर्गा बांग देता था तभी सूरज उगता था । ऐसा कभी हुआ ही नहीं था कि सूरज बिना मुर्गे की बांग के उगा हो, इसलिए यह बात बिलकुल तर्क शुद्ध थी। फिर एक दिन बुढ़िया गांव पर नाराज हो गयी। किन्हीं लोगों ने उसे नाराज कर दिया, तो उसने कहा, ठहरो । पछताओगे पीछे । चली जाऊंगी अपने मुर्गे को लेकर दूसरे गांव । तब रोओगे, छाती पीटोगे, जब सूरज नहीं उगेगा। नाराजगी में बुढ़िया अपने मुर्गे को लेकर दूसरे गांव चली गयी। दूसरे गांव में मुर्गे ने बांग दी और सूरज उगा। बुढ़िया ने कहा, अब रो रहे होंगे। सूरज यहां उग रहा है, जहां मुर्गा बांग दे रहा है। तिनका भी सोचता है, मैं न होऊंगा तो नदी कैसे बहेगी। आप भी सोचते हैं, आप न होंगे तो संसार कैसे होगा! हर आदमी यही सोचता है। कब्रों में जाकर देखें, बहुत ऐसे सोचने वाले कब्रों में दबे पड़े हैं जो सोचते थे उनके बिना संसार कैसे होगा। और संसार बड़े मजे में है, संसार उनको बिलकुल भूल ही गया। संसार को कोई पता ही नहीं है। ___ हर आदमी के मरने पर हम कहते हैं कि अपूरणीय क्षति हो गयी, अब कभी भरी न जा सकेगी, और फिर बिलकुल भूल जाते हैं, फिर पता ही नहीं चलता कि किसकी अपुरणीय क्षति हई। ऐसा लगता है, सब अन्धकार हो गया। और कोई अन्धकार नहीं होता । दीये जलते चले जाते हैं, फूल खिलते चले जाते हैं। समय की धारा निरपेक्ष है। आपसे कुछ लेना-देना नहीं । समय से आप कुछ कर सकते हैं, समय का आप कोई उपयोग कर सकते हैं। तिनका नदी का उपयोग करके सागर भी पहुंच सकता है, किनारे पर भी अटक सकता है, डूब भी सकता है। लेकिन नदी को कोई प्रयोजन नहीं है। समय की धारा बही जाती है। आप उसका कोई उपयोग कर सकते हैं। आप सिर्फ एक उपयोग करते हैं, स्थगित करने का । कल करेंगे, परसों करेंगे, छोड़ते चले जाते हैं इस भरोसे कि कल भी होगा! लेकिन कल कभी होता नहीं है। __कल कभी भी नहीं होता है। जब भी हाथ में आता है, तो आता है आज । और उसको भी कल पर छोड़ देते हैं। जीते ही नहीं, स्थगित किये चले जाते हैं। कल जी लेंगे, परसों जी लेंगे। फिर एक दिन द्वार पर मौत खड़ी हो जाती है, वह क्षण भर का अवसर नहीं देती है और तब हम पछताते हैं। वह सब जो स्थगित किया हआ जीवन है, सब आपके सामने खड़ा हो जाता है कि क्या-क्या जी सकते थे, क्या हो सकता था, कितने अंकुर निकल सकते थे जीवन में, कितनी यात्रा हो सकती थी, वह कुछ भी न हो पायी। तब पीछे लौटकर देखते हैं तो कुछ तिजोरियों में रुपये दिखायी पड़ते हैं, जिनको भर लिया, जीवन के मूल्य पर । कुछ लड़के-बच्चे दिखायी पड़ते हैं, जिनको बड़ा कर लिया जीवन के मूल्य पर । वे चारों तरफ बैठे हैं खाट के और सोच रहे हैं कि चाबी किसके हाथ लगती है। रो रहे हैं, लेकिन ध्यान चाबी पर है। इनको बडा कर लिया जीवन के मूल्य पर । हिसाब-किताब, खाता-बही, बैंक सब च हट जायेंगे। आपका खाता किसी और के नाम हो जायेगा । आपका मकान किसी और का निवास स्थान बन जायेगा। आपकी आकांक्षाएं किन्हीं और के भूत बन जायेंगी, उन पर सवार हो जायेंगी और आप बिदा हो जायेंगे। और आपने सारे जीवन, जो भी मूल्यवान था, उसको स्थगित किया। हम धर्म को स्थगित करते हैं और अधर्म को जीते हैं। क्रोध हम अभी कर लेते हैं, ध्यान हम कहते हैं, कल कर लेंगे। प्रार्थना हम कहते हैं, कल कर लेंगे, बेईमानी हम अभी कर लेते हैं। धर्म को करते हैं स्थगित, अधर्म को अभी जी लेते हैं। लेकिन क्यों? हमको भी पता है कि जो कल पर स्थगित किया वह हो नहीं पायेगा; इसलिए जो हम करना चाहते हैं, वह आज कर लेते हैं। जो हम नहीं करना 17 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001821
Book TitleMahavira Vani Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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