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________________ महावीर-वाणी भाग : 2 को कहते हैं, मैं तुम्हारा, मैं तुम्हारे बिना न जी सकूँगा, और सब सबके बिना जी लेते हैं। मगर यह कठोर है, सत्य। ___ महावीर कहते हैं, कोई अपना नहीं । इसका यह मतलब नहीं है कि सब दुश्मन हैं। इसका कुल मतलब इतना है कि तुम होश रखना। जैसे कि कोई आदमी युद्ध के मैदान पर होश रखता है । एक क्षण भी चूकता नहीं, बेहोशी को आने नहीं देता, तलवार सजग रखता, धार पैनी रखता, आंख तेज रखता, चारों तरफ चौकन्ना होता है। कभी भी, किसी भी क्षण जरा-सी बेहोशी और खतरा हो जायेगा । ठीक वैसे जीना जैसे कि प्रतिपल कुरुक्षेत्र है, प्रतिपल युद्ध है, किसी का विश्वास न करना । 'काल निर्दयी है, और शरीर दुर्बल ।' इन सत्यों को स्मरण रखना कि काल निर्दयी है। समय आपकी जरा भी चिन्ता नहीं करता । समय आपका विचार ही नहीं करता, बहा चला जाता है। समय को आपको होने का कोई पता ही नहीं है। समय आपको क्षमा नहीं करता । समय आपको सविधा नहीं देता। समय लौटकर नहीं आता । समय से आप कितनी ही प्रार्थना करें, कोई प्रार्थना नहीं सुनी जाती। समय और आपके बीच कोई भी संबंध नहीं है। मौत आ जाये द्वार पर और आप कहें कि एक घडी भर ठहर जा, अभी मुझे लड़के की शादी करनी है, कि अभी तो कुछ काम पूरा हुआ नहीं, मकान अधूरा बना है। एक बूढ़ी महिला संन्यास लेना चाहती थी, दो महीने पहले । उसकी बड़ी आकांक्षा थी संन्यास ले लेने की। मगर उसके बेटे खिलाफ थे कि संन्यास नहीं लेने देंगे। मैंने उसके एक बेटे को बुलाकर पूछा कि ठीक है, संन्यास मत लेने दो, क्योंकि बूढ़ी स्त्री है, तुम पर निर्भर है और इतना साहस भी उसका नहीं है। लेकिन कल अगर इसे मौत आ जाये तो तुम मौत से क्या कहोगे, कि नहीं मरने देंगे। जैसे कि कोई भी उत्तर देता, बेटे ने उत्तर दिया । कहा कि मौत कब आयेगी, कब नहीं आयेगी, देखा जायेगा। मगर संन्यास नहीं लेने देंगे। और अभी दो महीने भी नहीं हआ और वह स्त्री मर गयी। जिस दिन वह मर गयी. उसके बेटे की खबर आयी कि क्या देंगे, हम उसे गैरिक वस्त्रों में माला पहनाकर संन्यासी की तरह चिता पर चढ़ा दें! ‘काल निर्दयी है। लेकिन अब कोई अर्थ भी नहीं है, क्योंकि संन्यास कोई ऐसी बात नहीं है कि वह ऊपर से डाल दिया जाये । न जिन्दा पर डाला जा सकता है, न मुर्दा पर डाला जा सकता है। संन्यास लिया जाता है, दिया नहीं जा सकता । मरा आदमी कैसे संन्यास लेगा? दिया जा सके तो मरे को भी दिया जा सकता है। __ संन्यास दिया जा ही नहीं सकता, लिया जा सकता है। इन्टेंशनल है, भीतर अभिप्राय है। वही कीमती है, बाहर की घटना का तो कोई मूल्य नहीं है। भीतर कोई लेना चाहता था । संसार से ऊबा था, संसार की व्यर्थता दिखायी पड़ी थी, किसी और आयाम में यात्रा करने की अभीप्सा जगी थी, वह थी बात । अब तो कोई अर्थ नहीं है, लेकिन अब ये बेटे अपने मन को समझा रहे हैं। मौत को तो न समझा पाये. अपने मन को समझा रहे हैं। मौत को तो नहीं रोक सकते कि रुको. अभी हम न जाने देंगे। मां को रोक सकते थे। मां भी रुक गयी क्योंकि उसे भी मौत का साफ-साफ बोध नहीं था। नहीं तो रुकने का कोई कारण भी नहीं था। मां डरी कि बेटों के बिना कैसे जीयेगी! और अब, अब बेटों के बिना ही जीना पड़ेगा। अब इस लम्बे यात्रापथ पर बेटे दुबारा नहीं मिलेंगे। और मिल भी जायें तो पहचानेंगे नहीं। __'काल निर्दयी है', इसका अर्थ यह है कि समय आपकी चिन्ता नहीं करता। इसलिए, इस भरोसे मत बैठे रहना कि आज नहीं कल कर लेंगे, कल नहीं परसों कर लेंगे। पोस्टपोन मत करना, स्थगित मत करना । क्योंकि जिसके भरोसे स्थगित कर रहे हो, उसको जरा भी दया नहीं है । दया नहीं है, इसका यह मतलब नहीं कि वह कोई आपका दुश्मन है । निरपेक्ष है, कोई संबंध ही नहीं है उसको आपसे । आप होंगे कि नहीं होंगे, इससे क्या फर्क पड़ता है समय की धारा को? एक तिनका नदी में बह रहा है, नदी को क्या लेना-देना है कि तिनका बहेगा कि नहीं बहेगा, कि तिनके के सहारे नदी बह रही है। हालांकि तिनके यही सोचते हैं कि अगर हमन हुए, नदी कैसे बहेगी! 16 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001821
Book TitleMahavira Vani Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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