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पांच ज्ञान और आठ कर्म
है, वह पूरा करना पड़ेगा। __ महावीर कहते हैं कि जीवन चलता है कार्य-कारण के नियम से। यहां जो भी इकट्ठा हो गया है, उसका प्रतिफल पूरा करना होगा। इसलिए उसे सहज स्वीकृति से जो जी लेता है, वह मुक्त हो जाता है।
'नाम'–महावीर कहते हैं कि नाम, अहंकार, यश, पद, कुल, प्रतिष्ठा ये सब भी कर्म हैं। एक आदमी ब्राह्मण के घर पैदा होता है, अच्छे घर में पैदा होता है, जहां ज्ञान का वातावरण है, शुभ मौजूद है । वह वहां इसलिए पैदा होता है कि पिछले जन्मों में, महावीर कहते हैं, वह विनम्र रहा होगा, शांत रहा होगा। लेकिन ब्राह्मण का बेटा होकर वह अकड़ जाता है कि मैं ब्राह्मण हूं, शूद्र से ऊंचा हूं-अब वह ऐसा इंतजाम कर रहा है कि अगले जन्म में शूद्र हो जाये।
नाम, कुल, आकार-मूर्त पर जोर न दें, अमूर्त को ध्यान में रखें तो कर्म कटते हैं । मूर्त पर बहुत जोर दें तो कर्म बढ़ते हैं । तो महावीर कहते हैं कि कुल की, नाम की, पद की, प्रतिष्ठा की चर्चा ही उठानी उचित नहीं है। इसलिए महावीर किसी से भी नहीं पूछते, जब उनके पास कोई दीक्षा लेने आता है, संन्यस्त होता है तो वे उससे नहीं पूछते : तू जाति से क्या है ? कुल से क्या है ? तेरा नाम क्या है ? धन कितना था परिवार में ? कुलीन घर से आता है कि अकुलीन घर से आता है ? नहीं, उसके मूर्त जीवन के संबंध में वे कुछ भी नहीं पूछते । झांकते हैं उसके अमूर्त जीवन में।
तो आप अपने आसपास जो आकार हैं, उस पर जोर न दें ; क्योंकि आकार पर जोर देंगे तो आकार निर्मित होते चले जायेंगे। निराकार जो भीतर छिपा है, उस पर ज़ोर दें। वह, आकारों की जो प्रक्रिया है, उसको काटने का उपाय है। ___ 'गोत्र'-गोत्र से महावीर का अर्थ है, वैषम्य का भाव कि मैं ऊंचा हूं, तुम नीचे हो। महावीर ने ऊंच-नीच के भाव को तोड़ने की बड़ी चेष्टा की, क्योंकि वे कहते हैं कि यह बहुत सूक्ष्म है अहंकार कि 'मैं ऊंचा हूं।'
लेकिन उस धारणा में हम सभी जीते हैं। आपको कोई ऊंचा लगता है, कोई नीचा लगता है; किसी को आप देखते हैं कि वह नीचे है, किसी को आप देखते हैं कि वह ऊपर है । और खुद को ऊपर होना चाहिए, इसकी चेष्टा में लगे रहे हैं, महावीर कहते हैं जो खुद ऊपर होने की चेष्टा में लगा है, प्रतिस्पर्धा में लगा है, वह अपने ही हाथों नीचे डूबता जा रहा है। जो बिलकुल सहज खड़ा हो जाता है और ऊंचे-नीचे के भाव को छोड़ देता है, गोत्र का भाव छोड़ देता है, वही केवल इस चक्कर से मुक्त हो पाता है।
लेकिन, आसान है अपने को ऊंचा समझना । इससे उल्टा भी आसान है, अपने को नीचा समझना भी आसान है। एडलर ने पश्चिम में खोज की है कि मनुष्य में दो वृत्तियां हैं, एक सुपिरियारिटी काम्पलेक्स और इन्फिरियारिटी काम्पलेक्स-एक ऊंचे की भावना और एक नीचे की भावना । इन दोनों में से कोई भी आप पकड़ लेंगे। या तो अपने को ऊंचा समझेंगे या अपने को नीचा समझेंगे। कुछ लोग सदा अपने को ऊंचा समझते रहते हैं, कुछ लोग सदा अपने को नीचा समझते रहते हैं। इसी वजह से वे डरे रहते हैं, सिकुड़े रहते हैं, हमेशा भयभीत रहते हैं। ___ महावीर कहते हैं, दोनों ही कर्मफल हैं, दोनों भाव छोड़ दें। सिर्फ जानें अपने को कि मैं हूं—न ऊंचा, न नीचा । किसी तुलना में अपने को न रखें, और किसी से अपने को तौलें भी नहीं, क्योंकि किसी से तौलने की जरूरत नहीं है, कम्पेरिजन का कोई सवाल नहीं है। आप आप हैं, और आप जैसा कोई भी नहीं जगत में । इसलिये तौलने का कोई उपाय नहीं है, तौल तो वहां हो सकती है, जहां आप जैसा कोई
और हो। ___ तो कोई आपसे नीचा भी नहीं हो सकता, ऊंचा भी नहीं हो सकता । आप कह सकते हैं क्या, कि आम जो है, इमली से नीचा है ? वैसा कहना पागलपन की बात है। हां, आप यह कह सकते हैं कि यह राजा आम है , ये साधारण आम से ऊंचा है। दो आमों में तुलना
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