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________________ महावीर वाणी भाग 2 'वेदनीय' – दुख खोज ही लेंगे! ऐसा हो ही नहीं सकता कि कहीं दुख न हो । हम सबके पास जन्मों-जन्मों से ऐसे वेदनीय परमाणु हैं, जो हमें उकसाते हैं कि खोजो दुख, दुख खोजो। और ऐसा असंभव है कि आदमी को कहीं खोजने से दुख न मिल जायें। जीवन में दुख हैं— काफी हैं, और आप खोजने को उत्सुक हैं, तब तो कहना ही क्या ! हमारी हालत वैसी ही है, जैसे कभी आपको होता होगा कि पैर में चोट लग गयी, तो फिर दिनभर उसी में चोट लगती है। आप सोचते होंगे, ‘कैसा अजीब मामला है, दुनिया का नियम कैसा बेहूदा है कि जब चोट नहीं थी तो इसमें चोट नहीं लगती थी, अब चोट लगी है, एक घाव है, तो दिनभर चोट लग रही है?' आप गलती में हैं। दुनिया आपके घाव की कोई फिक्र नहीं करती। और न दरवाजे को कोई मतलब है कि आपके घाव में लगे; न कुर्सीको मतलब है, न टेबल को मतलब है । न बच्चे को मतलब है कि आपके घाव पर खड़ा हो जाये। किसी को कोई मतलब नहीं है आपके घाव से । लेकिन जब आपके पास घाव होता है, तो वेदनीय कर्म आपके घाव के आसपास होते हैं। सारे दुख... तब हर चीज छूती है, और बहुत दुखद मालूम होती है। कल भी हर चीज छूती थी, लेकिन आपके पास दुख को पकड़ने की क्षमता नहीं थी, घाव नहीं था। कल भी लड़के ने पैर वहीं रख दिया था, लेकिन कुछ पता नहीं चला था। आज भी वहीं रख दिया है, लेकिन आज पता चलता है; क्योंकि आज घाव है । ध्यान रहे, आपके दुख कोई आपको दे नहीं रहा है, आप ले रहे हैं। दुनिया में कोई किसी को दुख दे नहीं सकता। यह हमें कठिन लगेगा। इससे उल्टा समझ लें तो आसानी हो जायेगी। क्या दुनिया में कोई किसी को सुख दे सकता है ? पत्नी पति को सुख देने की कोशिश कर रही है, पति पत्नी को सुख देने की कोशिश कर रहा है। और दोनों दुखी हैं, नरक में मरे जा रहे हैं। कोई किसी को सुख नहीं दे सकता है तो कोई किसी को दुख भी कैसे दे सकता है ? मां-बाप कोशिश कर रहे हैं बेटे को सुख देने की, और बेटा सोच रहा है : कब इनसे छुटकारा हो, कैसे छूटें इनके जाल से । ...क्या मामला है ? कोई किसी को सुख दे नहीं सकता, न कोई किसी को दुख दे सकता है। इस जगत में दुख लिया जा सकता है, सुख लिया जा सकता है — दिया नहीं जा सकता। यह एक मौलिक सिद्धांत है, आधारभूत। इसलिए अगर आप दुख में जी रहे हों, तो समझना कि आप दुख लेने में बड़े कुशल हैं। उस कुशलता का नाम वेदनीय कर्म है। आप कुशल हैं : आप सदा दुख लेने को उत्सुक हैं। एक आदमी आपकी दिनभर सेवा करे, आपको खयाल भी नहीं आयेगा । और जरा आपकी आज्ञा का उल्लंघन कर दे कि बस, सब नष्ट हो गया। एक पत्नी आपकी जीवनभर सेवा करती रहे, पैर दबाती रहे, कुछ पता नहीं चलता । कोई खयाल भी नहीं, धन्यवाद भी आप कभी नहीं देते। और एक दिन कह दे कि 'नहीं, आज चाय मुझे नहीं बनानी, आप बना लें, सब जीवन नष्ट हो गया, सब गृहस्थी बरबाद हो गई। मन में तलाक के विचार आने लगते हैं। नसरुद्दीन खड़ा था अदालत में जाकर और कह रहा था कि 'अब बस हो गया, अब बहुत हो गया, अब तो तलाक चाहिये ।' उससे मजिस्ट्रेट ने पूछा कि 'बात क्या है ?' नसरुद्दीन ने कहा कि 'बात हद से ज्यादा आगे बढ़ गई है। एक ही कमरा है रहने का और उसमें पत्नी ने तीन बकरियां पाल रखी हैं। इतनी गंदगी हो रही है और इतनी बास आ रही है कि अब मर जायेंगे, या फिर तलाक। इन दोनों के अतिरिक्त अब और कोई उपाय नहीं है।' जज ने कहा कि 'बात तो समझ में आती है; हालत तो बुरी है, लेकिन खिड़कियां क्यों नहीं खोल देते कि बास जरा बाहर निकल जाये,' नसरुद्दीन ने कहा, 'क्या कहा, खिड़कियां ? और मेरे पांच सौ कबूतर उड़ जायें...! ' ....खिड़कियां खोल नहीं सकते, क्योंकि पांच सौ कबूतर खुद रखे हुए हैं - वेदनीय कर्म...! Jain Education International 264 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001821
Book TitleMahavira Vani Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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