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________________ पांच ज्ञान और आठ कर्म आप दूसरे से भी कहेंगे, और तीसरे से भी कहेंगे । और हर बार यह बात कारगर होगी। क्योंकि मन असत्य में पला है। अगर प्रेमी अपनी प्रेयसी से कहे कि तू मुझे सुन्दर मालूम पड़ती है तुलनात्मक रूप से : जितनी स्त्रियों को मैं जानता हूं, उनमें तू सबसे सुंदर मालूम पड़ती है, लेकिन और स्त्रियां भी सुंदर हो सकती हैं, जिन्हें मैं जानता नहीं हूं! तो कविता नष्ट हो जायेगी। तो प्रेम खड़ा ही नहीं हो पायेगा। वह स्त्री कहेगी कि आप कोई गणित का हिसाब कर रहे हैं—रिलेटिव, सापेक्ष? कल हो सकता है, तुझसे अच्छी स्त्री मिल जाये, तो मैं उससे प्रेम करूंगा, तो प्रेम खड़ा ही नहीं होगा। __ सत्य के आधार पर प्रेम को खड़ा करना बड़ा मुश्किल है; असत्य के आधार पर प्रेम खड़ा हो जाता है, फिर टूटता है-टूटेगा ही। आप रेत के भवन बना सकते हैं, लेकिन उन्हें गिरने से नहीं बचा सकते ! आप ताश के महल खड़े कर सकते हैं, लेकिन हवा का छोटा-सा झोंका उन्हें गिरा जायेगा। _पर हमारी पूरी जिन्दगी ऐसे असत्यों पर खड़ी है। मां सोचती है कि उसका बेटा उसे सदा प्रेम करेगा। बाप सोचता है, बेटा उसकी सदा मानेगा। लेकिन इस बाप ने भी अपने बाप की कभी नहीं मानी। इसे इसका खयाल ही नहीं कि सत्य क्या है? एक घड़ी आएगी ही, जब बेटे को अपने बाप को इनकार करना पड़ेगा। और जो बेटा अपने बाप को इनकार न कर सके, वह ठीक अर्थों में जीवित ही नहीं हो सकेगा। जैसे मां के गर्भ से अलग होना ही पड़ेगा बेटे को, वैसे ही बाप की आज्ञा के गर्भ के भी बाहर जाना पड़ेगा। __ मैंने सुना है कि एक बहुत प्रसिद्ध यहूदी फकीर जोसुआ मरा । वह बड़ा सात्विक, शीलवान, शुद्धतम व्यक्ति जैसे हों, वैसा व्यक्ति था। स्वर्ग में उसके स्वागत का आयोजन हुआ। बड़े बैंड-बाजे, बड़ा नृत्य, बड़ा संगीत, बड़ी सुगंध, बड़ी फुलझड़ियां, पटाखे-लेकिन वह स्वागत में सम्मिलित नहीं होना चाहा । उसने अपनी आंखें छुपा लीं, जैसे कोई बड़ी गहरी पीड़ा उसे हो। और वह रोने लगा। बहुत समझाया, लेकिन वह राजी नहीं हुआ। तो फिर उसे ईश्वर के सामने ले जाया गया। और ईश्वर ने उससे कहा : 'जोसुआ, यह स्वागत तेरे योग्य है। तूने जीवन ऐसा जिया है-पवित्र, कि स्वर्ग के द्वार पर तेरा स्वागत हो-यह जरूरी है, तू इतना चिंतित और बेचैन क्यों है ? तेरी जिन्दगी में कहीं कोई कलुष नहीं, कहीं कोई दाग नहीं; तेरे जैसा शुद्ध व्यक्ति मुश्किल से कभी पृथ्वी से स्वर्ग में आता है। इसलिए स्वर्ग प्रसन्न है; उस प्रसन्नता में सम्मिलित होओ।' जोसुआ ने कहा, 'और तो सब ठीक है, लेकिन एक पीड़ा मेरे मन में है। जरूर मेरे जीवन में कोई पाप रहा होगा, अन्यथा यह नहीं होता, मेरा बेटा...! जोसुआ यहूदी है—मेरा बेटा मेरी सारी चेष्टा के बावजूद, मेरे उदाहरण के बावजूद, मेरे जीवन के बावजूद ईसाई हो गया। वह पीड़ा मेरे मन में है।' ईश्वर ने कहा कि 'त मत भयभीत हो. मत चिंतित हो. मैं तझे समझ सकता हं-आई कैन अंडरस्टैंड य, बिकाज दि सेम वाज डन विथ माइ ओन सन, जीसस-वह मेरा बेटा जो जीसस है, वही उपद्रव उसने भी किया, वह भी ईसाई हो गया।' लेकिन बेटे एक सीमा पर बाप से पृथक हो जायेंगे-अनिवार्य है। लेकिन न बेटा इस सत्य को स्वीकार करने को राजी है, न बाप इस सत्य को स्वीकार करने को राजी है। मां सोचती है, बेटा उसे सदा प्रेम करता रहेगा। अगर बेटा मां को सदा प्रेम करता रहे, जैसा उसने बचपन में किया था, तो बेटे का जीवन ही व्यर्थ हो जायेगा। एक सीमा पर मां के घेरे के बाहर उसे जाना पड़ेगा। वह किसी स्त्री को चुनेगा, मां फीकी पड़ती जायेगी, संबंध औपचारिक रह जायेगा। क्योंकि जीवन की धारा आगे की तरफ है, पीछे की तरफ नहीं। ___ अगर बेटा मां को प्रेम करता चला जाये, तो धारा उल्टी हो जायेगी। मां बेटे को प्रेम करेगी, यह बेटा भी अपने बेटे को प्रेम करेगा; लेकिन प्रेम की धारा पीछे की तरफ नहीं है । पीछे की तरफ तो मधुर संबंध बाकी रह जायें, इतना काफी है। वह भी नहीं हो पाता । लेकिन हर मां यही भरोसा करेगी, इसलिए हर मां दुखी होगी। हर बाप पीड़ित होगा। पीड़ा का कारण बेटा नहीं है, पीड़ा का कारण एक असत्य का 247 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001821
Book TitleMahavira Vani Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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