SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 259
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मनुष्य जाति के इतिहास में महावीर ने ज्ञान का पहला विभाजन किया है । ज्ञान के कितने आयाम हो सकते हैं, कितनी दिशाएं हो सकती हैं। ज्ञान कितने प्रकार का हो सकता है, या होता है-महावीर का वर्गीकरण प्रथम है। अभी पश्चिम में इस दिशा में काफी काम हुआ है। महावीर ने पांच प्रकार के ज्ञान बताए हैं। इस सदी के प्रथम चरण तक सारी मनुष्यता मानकर चलती थी कि ज्ञान एक ही प्रकार का है। वैज्ञानिक ज्ञान का एक ही रूप स्वीकार करते थे। लेकिन अब वैज्ञानिकों ने भी महावीर के पहले तीन ज्ञान स्वीकार कर लिए हैं। और वह दिन ज्यादा दूर नहीं है, जब बाद के दो ज्ञान भी स्वीकार करने पड़ेंगे। ज्ञान के इस वर्गीकरण को ठीक-से समझ लेना जरूरी है। मनुष्य की चेतना का यह पहला वैज्ञानिक निरूपण है। पहले तीन ज्ञान सामान्य मनुष्य में भी हो सकते है, होते हैं। अंतिम दो ज्ञान साधक के जीवन में प्रवेश करते हैं, और अंतिम, पांचवां ज्ञान केवल सिद्ध के जीवन में होता है। इसलिए पश्चिम के मनोवैज्ञानिक पहले तीन ज्ञानों को स्वीकार करने लगे हैं; क्योंकि उनकी झलक सामान्य मनुष्य के जीवन में भी मिल सकती है। साधक की चेतना में क्या घटित होता है, और सिद्ध की चेतना में क्या घटित होता है, अभी देर है कि उस संबंध में जानकारी साफ हो सके; लेकिन महावीर की दृष्टि बहुत साफ है। __ पहला ज्ञान, महावीर कहते हैं, 'श्रुत', दूसरा ‘मति', तीसरा 'अवधि' । 'श्रुत' ज्ञान : जो सुनकर होता है, जिसका स्वयं कोई अनुभव नहीं है। हमारा अधिक ज्ञान, श्रत-ज्ञान है। न तो हमारी अन्तरात्मा को उसकी कोई प्रतीति है, और न हमारी इंद्रियों को उसका कोई अनभव है। हमने सुना है, सुनकर वह हमारी स्मृति का हिस्सा हो गया है । इसे ही जो ज्ञान मानकर रुक जाता है, वह ज्ञान के पहले चरण पर ही रुक गया। यह तो ज्ञान की शुरुआत ही थी। जो सुना है, जब तक देखा न जा सके; जो सुना है, जब तक जीवन न बन जाये; जो सुना है, जब तक जीवन की धारा में प्रविष्ट न हो जाये, तब तक उसे ज्ञान कहना औपचारिक रूप से ही है। हमारा अधिक ज्ञान इसी कोटि में समाप्त हो जाता है। और मजा यह है कि हम इसी ज्ञान को समझ लेते हैं; पूर्णता हो गई! श्रुत-ज्ञान को ही जिसने पूरा ज्ञान समझ लिया, वह पंडित हो जाता है, ज्ञानी कभी भी नहीं हो पाता। स्कूल हैं, कालेज हैं, गुरु हैं, शास्त्र हैं-इनसे जो भी हमें मिलता है, वह श्रुति-ज्ञान ही हो पाता है। वह श्रुत है। और कान आपका पूरा अस्तित्व नहीं है; और कान से जो स्मृति में चला गया, वह जीवन का एक बहुत क्षुद्र हिस्सा है, वह सिर्फ रिकार्डिंग है। सुना आपने कि 'ईश्वर है', ये शब्द कान में चले गये, स्मृति के हिस्से बन गए; बार-बार सुना तो स्मृति प्रगाढ़ होती चली गई; इतनी बार सुना कि आप यह भूल ही गये कि यह सुना हुआ है। 245 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001821
Book TitleMahavira Vani Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy