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आत्मा का लक्षण है ज्ञान
भरी होगी।
लेकिन महावीर जिस ढंग से चल रहे हैं, वह बिलकुल वैज्ञानिक है बात। पहली झलक ज्ञान - अपने होने की — फिर दर्शन । अपने हो और दूसरों के होने के बीच का पूरा तारतम्य खयाल में आ जाये, क्योंकि मैं तभी अहिंसक हो सकता हूं, अगर मुझे पता चले कि मैं तो आत्मा हूं और पता चले कि आप आत्मा नहीं हैं, तो अहिंसक होने की कोई जरूरत नहीं है। जिस दिन मुझे लगता है कि जैसा मेरे भीतर है, वैसा ही आपके भीतर भी है, जिस दिन मेरा भीतर और आपका भीतर एक होने लगते हैं, जिस दिन मैं आपमें अपने को ही देख पाता हूं और मुझे लगता है कि आप को पहुंचाई गई चोट खुद को ही पहुंचाई गई चोट होगी, उस दिन अहिंसा का जन्म हो सकता है।
महावीर चींटी पर भी पैर रखने में हिचकिचाते हैं, संभलकर चलते हैं, इसलिए नहीं कि चींटी को दुख हो जायेगा, चींटी का दुख महावीर का अपना ही दुख होगा। कोई चींटी की फिक्र नहीं कर सकता इस जगत में, सब अपनी ही फिक्र करते हैं। लेकिन जिस दिन अपना इतना फैलाव हो जाता है कि चींटी भी उसमें समाहित हो जाती है— इसे 'दर्शन' कहेंगे। महावीर को लगा कि जो मैं हूं, वही और सबके भीतर है। यह प्रतीति जब प्रगाढ़ हो जाती है, तब आचरण में उतरनी शुरू हो जाती है। उतरेगी ही।
तो ध्यान रहे, जब आचरण को जबरदस्ती लाना पड़ता है, तब आप व्यर्थ की चेष्टा में लगे हैं। तब ज्यादा से ज्यादा हिपोक्रेट, एक पाखंडी आदमी पैदा हो जायेगा जो बाहर कुछ होगा भीतर कुछ होगा – ठीक उल्टा होगा, और बड़ी बेचैनी में होगा; क्योंकि उसके जीवन की व्यवस्था सहज नहीं हो सकती; उसके भीतर से कुछ बह नहीं रहा है; अहिंसा भीतर से नहीं आ रही है, ऊपर से थोपी जा रही है। तो एक बड़े मजे की घटना घटेगी, एक तरफ अहिंसा थोप लेगा तो हिंसा दूसरी तरफ से शुरू हो जायेगी। क्योंकि हिंसा भीतर है तो उसे बहाव चाहिये। किसी झरने को हम रोक दें पत्थर से, तो झरना दूसरी तरफ से फूटना शुरू हो जायेगा। बहुत पत्थर लगा देंगे तो झरना रिस-रिस कर बूंद-बूंद बहुत जगह से फूटने लगेगा। झरना नहीं रह जायेगा, बूंद-बूंद झरने लगेगा ।
जो लोग आचरण को ऊपर से थोप लेते हैं, उनका दुराचरण बूंद-बूंद होकर झरने लगता है। और ऐसे ढंग से झरता है कि वे खुद भी नहीं पहचान पाते । मवाद हो जाती है भीतर, सब सड़ जाता है, सिर्फ ऊपर शुभ्र आवरण होता है ।
महावीर चारित्र्य उसे कहते हैं, जो ज्ञान और दर्शन के बाद घटता है। उसके पहले घट नहीं सकता। मनुष्य को बदलना हो तो वह क्या करता है, उसे बदलने से शुरू नहीं किया जा सकता। वह क्या है, उसकी ही बदलाहट से ज्ञान बदलता है तो कर्म अनिवार्यरूपेण बदल जाता है। वह उसकी छाया है।
तो महावीर कहते हैं— 'ज्ञान, दर्शन, चारित्र्य, तप, वीर्य और अनुभव - ये जीव के लक्षण हैं।'
'तप' भी महावीर का समझने जैसा शब्द है। हम आमतौर से तप का अर्थ समझते हैं - अपने को तपाना; सताना । इससे बड़ी कोई भ्रान्ति नहीं हो सकती, भ्रान्ति पुरानी है, लेकिन परम्परागत है। और जैन साधु निरंतर अपने को सताने और तपाने में गौरव अनुभव करते हैं। लेकिन तप एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है - अल्केमिकल ।
मनुष्य की जीवन-ऊर्जा एक तरह की अग्नि है। और अगर हम ठीक से समझें तो जिन लोगों ने भी जीवन को समझने की कोशिश की है, वे मानते हैं कि जीवन एक प्रगाढ़ अग्नि का नाम है। हेराक्लीतु ने यूनान में यही बात कही - करीब-करीब महावीर के समय में- कि अग्नि जीवन का मौलिक तत्व है। और अब विज्ञान कहता है कि 'विद्युत' जीवन का मौलिक तत्व है। लेकिन 'विद्युत' अग्नि का ही एक रूप है, या 'अग्नि' विद्युत का एक रूप है।
आपके शरीर में प्रतिपल अग्नि पैदा हो रही है। आप एक दीया हैं। जैसे दीया जलता है, वैसे ही आपका जीवन जलता है। और ठीक वैज्ञानिक हिसाब से भी जो कुछ दीये में घटता है, वही आप में घटता है।
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