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विकास की ओर गति है धर्म
के सौंदर्य-शास्त्री सिम्पेथेटिक पार्टिसिपेशन कहते हैं—एक सहानूभूतिपूर्ण मिलन, एक रेपर्ट–जहां आप लड़ नहीं रहे हैं, बल्कि उन्मुक्त हैं समझने को, जीने को, नये कोण को देखने को राजी हैं। __ महावीर का मिजाज आपसे बिलकुल अलग है। यह आदमी बिलकुल और ढंग का है। इसकी यात्रा अलग है। यह किसी और ही ट्रेन में सवार है। इसकी दिशा भिन्न है । तो जैसे आप हैं, अगर वहीं से आप सोचेंगे, तो आप महावीर को चूक जायेंगे। जैसे महावीर हैं. अगर उनके रुख में आप झकने को राजी होंगे. तो ही आप समझ पायेंगे। ___ इसलिए धर्मों ने श्रद्धा का बड़ा मूल्य माना है। नहीं कि संदेह व्यर्थ है । संदेह उपयोगी है; पर धर्म की दिशा में नहीं, विज्ञान की दिशा में उपयोगी है। संदेह बहुमूल्य है अगर पदार्थ को समझना हो, क्योंकि पदार्थ के साथ किसी सहानुभूति की जरूरत नहीं है। सच तो यह है कि अगर पदार्थ को समझना हो, और सहानुभूति हो, तो आप समझ ही न पायेंगे। अगर एक वैज्ञानिक पदार्थ को समझने में सहानुभूति रखता हो, तो पदार्थ को समझ नहीं पायेगा, क्योंकि वह निरपेक्ष नहीं रह जायेगा। उसके पक्षपात जुड़ जायेंगे। उसे तो पूरी तरह निरपेक्ष, तटस्थ होना चाहिए-कोई सहानभति नहीं, जैसे वह है ही नहीं उसे जरा भी प्रविष्ट नहीं होना चाहिए पदार्थ को समझने में । उसे तो सिर्फ एक निरीक्षक होना चाहिए। जिससे उसका कोई भी संबंध नहीं तो ही विज्ञान और वैज्ञानिक सफल हो पाता है।
ठीक उल्टी है बात धर्म की। वहां अगर आप बहुत तटस्थ हैं, दूर खड़े हैं, सिर्फ निरीक्षक हैं, तो आप प्रवेश ही न कर पायेंगे। धर्म में तो प्रवेश हो पायेगा, अगर आप अति सहानुभूति से भरे हैं। जैसे मां अपने बच्चे को गोद में ले लेती है, अगर महावीर के वचनों को ऐसे ही आप अपने हृदय के पास ले सकेंगे, तो ही–तो ही संबंध जुड़ पायेगा। और एक बार संबंध जुड़ जाए, तो आपका मिजाज बदल जाता है, आपके होने का ढंग बदल जाता है। फिर महावीर की बातें समझ में आनी शुरू हो जाती हैं। क्योंकि आपकी आंखों की दिशा, आपकी आंखों का ढंग, आपके देखने का ढंग, आपके होने का ढंग, सब बदल जाता है । इसके पहले कि महावीर आपके साथी बन सकें, आपको उनका साथी बन जाना बहुत जरूरी है और इसके पहले कि वे आपकी समझ में आ सकें, आपकी समझ का पूरा ढंग बदल जाना जरूरी है।
जैसे आप हैं, वैसे ही महावीर को समझने का कोई उपाय नहीं है, इसलिए कोई महावीर को माननेवालों की कमी नहीं है, लेकिन समझनेवाला मुश्किल से कोई दिखाई पड़ता है। जो माननेवाले हैं, वे भी सोचनेवाले हैं। उन्होंने भी महावीर की व्याख्या कर रखी है अपने हिसाब से। अपने को पोंछकर, अपने को मिटाकर जो समझने चलेगा, वही केवल समझ पा सकता है।
अब हम सूत्र में प्रवेश करें।
ये सूत्र-प्राथमिक सूत्र थोड़े कठिन होंगे, क्योंकि महावीर अपने अनुभव को एक ढांचा दे रहे हैं, एक व्यवस्था दे रहे हैं। वह व्यवस्था समझ में आ जाये तो फिर बाद का प्रवेश बहत आसान है। 'धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुदगल और जीव-ये छह द्रव्य हैं । केवलदर्शन के धर्ता जिन भगवानों ने इन सबको लोक कहा
पहली बात : महावीर और जैनों के बाकी तेईस तीर्थंकर किसी शास्त्र में विश्वास नहीं करते-किसी वेद, किसी कुरान, किसी बाइबिल में उनका विश्वास नहीं है। क्योंकि उनकी दृष्टि यह है कि अनुभव शब्द में संरक्षित नहीं किया जा सकता। इसलिए मूल स्त्रोत सदा व्यक्ति है, शास्त्र नहीं।
जैसे हिंदू-धारणा है, वेद पर भरोसा है । मूल विश्वास वेद पर है-शास्त्र पर । जो वेद कहता है, वह ठीक है । और अगर कोई व्यक्ति कुछ कहता हो, वह वेद के विपरीत जाता हो, तो व्यक्ति गलत होगा, वेद गलत नहीं होगा। लेकिन महावीर की दृष्टि बिलकुल उल्टी है।
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