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महावीर वाणी भाग 2
हो कि शब्द में कोई सत्य नहीं है। तब मेरे शब्द में भी सत्य नहीं है और गीता के शब्द में भी सत्य नहीं है। तब सत्य साधना में है, स्वयं के
अनुभव में है। अगर ऐसा हुआ हो तो गीता को छोड़ने में कोई भी भय न लगेगा। क्या भय है? अगर भीतर ही यह बोध हो गया तो छोड़ने में जरा भी भय न लगेगा। बोध के लिए कोई भय नहीं है। भय का कारण यह है कि मेरा शब्द लग रहा है प्रीतिकर। तो अब गीता के शब्द को छोड़ना है। जगह खाली करनी है, तब मेरे शब्द को भीतर रख पायेंगे। इससे भय लग रहा है कि इतना पुराना शब्द, इसको छोड़ना और नये शब्द को पकड़ना ।
पुराना तिनका छोड़ना और नये तिनके को पकड़ने में भय लगेगा। क्योंकि पुराना तिनका तिनका नहीं मालूम पड़ता, नाव मालूम पड़ा है, इतने दिन से पकड़ा हुआ है। जब उसको छोड़ेंगे और नये तिनके को पकड़ेंगे तो नया तिनका अभी तिनका दिखायी पड़ेगा। धीरे-धीरे वह भी नाव बन जायेगा । जैसे-जैसे आंख बन्द होने लगेगी, वह भी नाव मालूम पड़ने लगेगा। इसलिए पुराने को नये से बदलने में भय लगता है। क्योंकि पुराने के साथ तो सम्मोहन जुड़ जाता है। नये के साथ सम्मोहित होना पड़ेगा, वक्त लगेगा, समय लगेगा। जितनी देर समय लगेगा उतने दिन भीतर एक भय और घबराहट रहेगी ।
नहीं, कोई गीता के शब्द को मेरे शब्द से बदलने की जरूरत नहीं है। सब शब्द एक जैसे हैं। अगर बदलना ही है तो सत्य से शब्द को बदलना। लेकिन सत्य है आपके भीतर, न मेरे शब्द में है, न गीता के शब्द में है, न महावीर के शब्द में है। इनके शब्द भी आपके भीतर की तरफ इशारा हैं । वह जो मील का पत्थर कह रहा है, मंजिल आगे है, तीर बना हुआ है; उस मील के पत्थर में कोई मंजिल नहीं है । वह सिर्फ इशारा है। और सब इशारे छोड़ देने पड़ते हैं तो ही यात्रा होती है। मील के पत्थर को छाती से लगाकर कोई बैठ जाये तो हम उसे पागल कहेंगे। लेकिन गीता को कोई छाती से लगाकर बैठा हो तो हम उसको धार्मिक आदमी कहते हैं।
गीता मील का पत्थर है, कृष्ण के द्वारा लगाया गया पत्थर है, इशारा है। मैं भी एक पत्थर लगा सकता हूं, वह भी इशारा बनेगा । आप एक पत्थर छोड़कर दूसरा पत्थर पकड़ लें, इससे कोई हल नहीं है। थोड़ी राहत भी मिल सकती है। जैसा कि मरघट लोग ले जाते अर्थी को, तो एक कंधे से दूसरे पर रख लेते हैं। थोड़ी देर राहत मिलती है क्योंकि एक कंधा थक गया, दूसरे पर रख लिया। अगर कृष्ण से आप थक गये हैं तो मुझे रख सकते हैं। लेकिन थोड़ी देर में मुझसे थक जायेंगे। जब कृष्ण से ही थक गये तो मुझसे कितनी बचेंगे बिना थके । मुझसे भी थक जायेंगे, फिर कंधा बदलना पड़ेगा। कंधे तो बदलते-बदलते जन्म बीत गये। कितने कंधे आप बदल नहीं चुके । कंधे बदलने से कोई सार नहीं है।
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इशारा ! इशारा क्या है? इशारा इतना ही है कि जो कहा जाता है, वह केवल प्रतीक है। जो अनुभव किया जाता है, वही सत्य है । आपने प्रेम का अनुभव किया और कहा कि मैंने प्रेम जाना। लेकिन जो सुन रहा है आपके शब्द, वह आपके शब्द सुनकर प्रेम नहीं जान लेगा ।
मैंने कहा, पानी मैंने पिया और प्यास बुझ गयी। अब मेरे वचन को पकड़कर आपकी प्यास नहीं बुझ जायेगी। पानी पीएंगे तो प्यास बुझ जायेगी । पानी शब्द में पानी बिलकुल भी नहीं है। तो कितना ही पानी शब्द को पीते रहें, प्यास न बुझेगी। धोखा हो भी सकता है कि आदमी अपने को समझा ले कि इतना तो पानी पी रहे हैं- पानी शब्द, पानी शब्द सुबह से शाम तक दोहरा रहे हैं। कहां की प्यास ? यह भी हो सकता है कि पानी शब्द में इतनी तल्लीनता बढ़ा लें कि प्यास का पता न चले, लेकिन प्यास बुझेगी नहीं। और जब भी पानी शब्द की रटन छोड़ेंगे, भीतर की प्यास का पता चलेगा, कि प्यास मौजूद है। पानी पीना पड़ेगा, पानी शब्द से कुछ हल नहीं है।
इसलिए भय लगेगा, अगर शब्द से शब्द को बदलना है। लेकिन कोई भय की जरूरत नहीं, अगर शब्द को सत्य से बदलना है। लेकिन सत्य कहीं बाहर से मिलनेवाला नहीं है—न कृष्ण से, न महावीर से, न बुद्ध से । सत्य है छिपा आपके भीतर। ये सारे कृष्ण,
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