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________________ अकेले ही है भोगना में आदमी कुछ भी कर लेता है। इसलिए महावीर ने कहा, आवेश नहीं चलेगा, नब्बे दिन का वक्त चाहिए। भोजन त्याग कर दो, पानी का त्याग कर दो। __ जिस आदमी को जीवन का सब रंग चला गया है, उसको प्यास की पीड़ा भी अखरेगी नहीं। अगर अखरती है, तो अभी जीवन को जीने का रस बाकी है। जिस आदमी को जीवन का ही अर्थ चला गया, वह अब यह नहीं कहेगा कि मुझे भूख लगी है और पेट में बड़ी तकलीफ होती है, क्योंकि पेट की तकलीफ जीवन का अंग थी । वे सारी चीजें कि तकलीफ हो रही है, पीड़ा हो रही है, वह जीवेषणा को ही हो रही थी। अगर जीवेषणा नहीं रही तो ठीक है; भूख भी ठीक है. भोजन भी ठीक है. प्यास भी ठीक है, पानी भी ठीक है। न मिला तो भी ठीक है। मिला तो भी ठीक है। ऐसी विरक्ति आ जायेगी। तो महावीर ने कहा है, नब्बे दिन तक जो शांतिपूर्वक मृत्यु की प्रतीक्षा कर सके, अशांत न हो जाये, इसमें भी जल्दबाजी न करे, उसे आज्ञा है कि वह मर सकता है। ___ यह आत्महत्या नहीं है। यह जीवन से मुक्त होना है, जीवन की मृत्यु नहीं है। और जीवन से मुक्त होना कहना भी ठीक नहीं है, यह जीवेषणा से मुक्त होना है। लेकिन समझना कठिन है । और उन्होंने जो जो बातें कही हैं, जिनमें हमें लगता है कि निषेधक हैं, वे कोई भी निषेधक नहीं हैं । महावीर तो कहते ही यह हैं कि जब कोई व्यक्ति अपने ही मन से मृत्यु को अंगीकार करता है, तभी परिपूर्ण जीवन को समझ पाता है। __इसे थोड़ा हम समझ लें । है भी यही बात । जब हमें सफेद लकीर खींचनी होती है तो हम काले ब्लैकबोर्ड पर खींचते हैं, सफेद दीवार पर नहीं । सफेद दीवार पर खींची गयी सफेद लकीर दिखायी भी नहीं पड़ेगी । जितना होगा काला तख्ता, उतनी उभरकर दिखायी पड़ेगी। जब बिजली चमकती है पूर्णिमा की रात में, तो पता भी नहीं चलती। और जब बिजली चमकती है अमावस को, तभी पता चलती है। महावीर की समझ यह है कि जब कोई व्यक्ति मृत्यु को अपने हाथ से वरण कर लेता है, मृत्यु को स्वीकार कर लेता है, तो मृत्यु का जो दंश है, दुख है, पीड़ा है वह तो खो गयी। मृत्यु एक काली रात्रि की तरह चारों तरफ घिर जाती है। और जब कोई व्यक्ति इसका कोई निषेध नहीं करता, कोई इनकार नहीं करता; तो मृत्यु पृष्ठभूमि बन जाती है, बैकग्राउंड बन जाती है। और पहली दफे जीवन की जो आभा है, जीवन की जो चमक है, बिजली है, जीवन की जो ज्योति है, इस चारों तरफ घिरी हुई मृत्यु के बीच में दिखायी पड़ती है। ___ जो जीवेषणा से घिरा है, वह जीवन को कभी नहीं देख पाता, क्योंकि वह सफेद दीवार पर लकीरें खींच रहा है। जो मृत्यु से घिरकर जीवन को देखने में समर्थ हो जाता है, वही जान पाता है कि मैं अमृत हूं, मेरी कोई मृत्यु नहीं है। यह जरा उल्टा मालूम पड़ता है, लेकिन जीवन के नियम के अनुकूल है। मृत्यु की सघनता में घिरकर ही जीवन भी सघन हो जाता है । मृत्यु जब चारों तरफ से घेर लेती है तो जीवन भी अखण्ड होकर बीच में खड़ा हो जाता है। और जब हम मृत्यु में भी जानते हैं कि 'मैं हूं', जब हम मृत्यु में डूबते हुए भी जानते हैं कि 'मैं हूं', जब मृत्यु सब तरफ से हमें घेर लेती है, तब भी हम जानते हैं कि 'मैं हूं', जब मृत्यु हमें शरीर के बाहर भी ले जाती है, तब भी हम जानते हैं कि 'मैं हूं', तभी कोई जानता है कि मैं के होने का क्या अर्थ है। क्या है जीवन? वह हम मृत्यु में ही जानते हैं। __ मरते हम सब हैं, लेकिन हमारी मृत्यु बेहोश है। मरते हम सब हैं, लेकिन नहीं मरने की आकांक्षा इतनी प्रबल होती है कि मृत्यु को हम दुश्मन की तरह लेते हैं । और जब दुश्मन की तरह लेते हैं तो हम मृत्यु से लड़ते हैं। हम मरते नहीं, हम लड़ते हुए मरते हैं। हम मरते नहीं-शांत, मौन, ध्यानपूर्वक देखते हुए । हम इतना लड़ते हैं, इतना उपद्रव मचाते हैं, इतना बचना चाहते हैं कि उस चेष्टा में बेहोश हो जाते हैं। 105 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001821
Book TitleMahavira Vani Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages596
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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