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अशरण-सूत्र जमिणं जगई पूढो जगा, कम्मेहिं लुप्पन्ति पाणिणो।
सयमेव कडेहि गाहई, नो तस्स मुच्चेज पुट्ठयं।। न तस्य दुक्खं विभयन्ति नाइओ, न भित्तवग्गा न सुया न बंधवा। एक्को सयं पच्चणुहोई दुक्खं, कत्तारमेव अणुजाइ कम्म।।
संसार में जितने भी प्राणी हैं, सब अपने कृतकों के कारण ही दुखी होते हैं। अच्छा या बुरा जैसा भी कर्म हो, उसका फल भोगे बिना छुटकारा नहीं हो सकता। पापी जीव के दुख को न जातिवाले बंटा सकते हैं, न मित्र वर्ग, न पुत्र, और न भाई-बन्धु । जब दुख आ पड़ता है, तब वह अकेला ही उसे भोगता है। क्योंकि कर्म अपने कर्ता के ही पीछे लगते हैं, अन्य किसी के नहीं।
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