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महावीर-वाणी भाग : 2 पर, भीतर की यात्रा पर है; इसलिए दुनिया के पंडित-पुरोहितों, कठमुल्लाओं और पादरियों ने परस्पर एक अलिखित, अघोषित षड्यंत्र ओशो के विरुद्ध कर रखा है, और वे और किसी बात में चाहे न केवल असहमत हों, बल्कि एक-दूसरे का खून पी जाने में भी संकोच न करें, किंतु बात जब ओशो की होती है तो सभी संगठित नज़र आते हैं। इनके संगठन को सत्ता का सहारा भी अनायास मिल जाता है, क्योंकि ओशो राजनीतिकों, राजनेताओं के नकली मुखौटों को भी निर्ममतापूर्वक खींचते रहते हैं। इस प्रकार स्थिति यह बन गई है कि सारी दुनिया में केवल वही लोग ओशो के प्रेम में पड़ रहे हैं, जिनके पास एक आंतरिक दृष्टि है, जो साहसी हैं और सरल भी, जिनके अंदर किसी न किसी प्रकार की सृजनात्मकता है। सही है कि उनकी संख्या दिन पर दिन बढ़ रही है, फिर भी विश्व की आबादी की तुलना में वह शायद सदैव कम ही रहेगी। ज्यों-ज्यों एक ओर ओशो रूपी सूर्य के प्रकाश से संस्पर्शित होकर थोड़े से लोगों में ज्योति की हलकी सी किरण झलकने लगी है, त्यों-त्यों दूसरी ओर सारे धूर्त, ढोंगी और पाखंडी भी अधिक से अधिक संगठित होते जा रहे हैं :
संगठित सारे अंधेरे हो गए हैं, एक मेरा दीप कब तक टिमटिमाए, तम हटाए।
आंधियों ने संधि कर ली पतझरों से अल्पमत में हो गई हैं अब बहारें, बाग़ के दुश्मन बने खुद बाग़बा अब, प्रश्न यह है-बुलबुलें किसको पुकारें। पद-प्रतिष्ठा बांट ली है उल्लुओं ने, कोकिलाएं आत्म हत्या कर रही हैं, इस चमन को कौन मरने से बचाए।
संगठित...!! किंतु, हम जो ओशो के प्रेमी हैं, उनसे जुड़े हैं, उन्हें निराश होने का कोई कारण नहीं। हम तो ओशो के संदेश को देश और काल की सीमाओं के पार पहुंचाने के अपने प्रयत्न अबाध रूप से करते ही रहें। किसी शायर के अनुसार ः
उनका जो फ़र्ज़ है, वह अहले सियासत जाने,
अपना पैग़ाम मुहब्बत है, जहां तक पहुंचे। अंत में ओशो के चरणों में मैं अपना यह भाव-नमन प्रस्तुत करके इस प्रस्तावना को समाप्त करता हूं:
चंदा-सा तन, सूरज-सा मन, बाहें विशाल! नयनों की अपलकता में बंदी महाकाल। तुम पृथ्वी भर के फूलों की अनुपम सुगंध, सर्जन के मौलिक महाकाव्य के अमर छंद। तुम मूर्तिमान उपनिषद, वेद, गीता, कुरान, अभिनव तीर्थंकर, पैगंबर, तुम महाप्राण
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