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अहिंसा : जीवेषणा की मृत्यु
ध्यान रहे, इससे महावीर के विचार को आज की दुनिया में पहुंचने में बड़ी कठिनाई हो रही है। क्योंकि महावीर का विचार मालूम होता है, मैसोचिस्ट है, अपने को सतानेवाला है, पीड़क-आत्मपीड़क है। लेकिन महावीर की देह को देखकर ऐसा नहीं लगता कि इस आदमी ने अपने को सताया होगा। महावीर की प्रफुल्लता देखकर ऐसा नहीं लगता कि इस आदमी ने अपने को सताया होगा। महावीर का खिला हुआ कमल देखकर ऐसा नहीं लगता कि इस आदमी ने अपनी जड़ों के साथ ज्यादती की होगी। मैं मानता हूं कि महावीर रंचमात्र भी आत्मपीड़क नहीं हैं। लेकिन महावीर के पीछे आत्मपीड़कों की परंपरा इकट्ठी हुई, यह जरूर सच है। जो अपने को सता सकते थे या सताने के लिए उत्सुक थे और बहुत लोग उत्सुक हैं, ध्यान रखना आप।। ___ इस जगत में दो तरह की हिंसाएं हैं- दूसरे को सताने के लिए उत्सुक लोग और एक और तरह की हिंसा है, अपने को सताने के लिए उत्सुक लोग। अपने को सताने में भी कुछ लोगों को इतना ही मजा आता है जितना दूसरे को सताने में। बल्कि सच पूछा जाए तो दूसरे को सताने में आपको कभी इतना अधिकार नहीं होता, इतनी सुविधा और स्वतंत्रता नहीं होती जितनी अपने को सताने में होती है। कोई विरोध ही करनेवाला नहीं होता! आप दूसरे को कांटे पर लिटाएं तो वह अदालत में मुकदमा चला सकता है। आप खुद को कांटों पर लिटा लें तो कोई मुकदमा नहीं चल सकता है, ना ! सिर्फ सम्मान मिल सकता है! आप दूसरों को भूखा मारें तो आप झंझट में पड़ सकते हैं; आप अपने को भूखा मारें तो जुलूस निकल सकता है, शोभायात्रा निकल सकती है।
लेकिन ध्यान रखें, सताने का जो रस है वह एक ही है। और महावीर कहते हैं जो अपने को सता रहा है, वह भी दूसरे को ही सता रहा है; क्योंकि वह अपने में दो हिस्से कर लेता है। वह शरीर को सताने लगता है जो कि वस्तुतः दूसरा है। यह शरीर, जो मेरे आसपास है, उतना ही दूसरा है मेरे लिये, जितना आपका शरीर जो जरा दूर है। इसमें भेद नहीं है। यह शरीर मेरे निकट है, इसलिए मैं नहीं हूं। और आपका शरीर जरा दूर है तो तू हो गया! मैं आपके शरीर को कांटे चुभाऊं तो लोग कहेंगे, यह आदमी दुष्ट है। और मैं अपने शरीर को कांटे चुभाऊं तो लोग कहेंगे, यह आदमी महात्यागी है।
लेकिन शरीर दोनों ही स्थिति में दूसरा है। यह मेरा शरीर उतना ही दूसरा है जितना आपका शरीर । सिर्फ फर्क इतना है कि मेरे शरीर को सताते वक्त कोई कानून बाधा नहीं बनेगा, कोई नैतिकता बाधा नहीं बनेगी। इसलिए जो होशियार हैं, कुशल हैं वे सताने का मजा अपने ही शरीर को सताकर लेते हैं। लेकिन सताने का मजा एक ही है। क्या है मजा? जिसको हम सता पाते हैं, लगता है उसके हम मालिक हो गये हैं, उसके हम स्वामी हो गये हैं। जिसको हम सता पाते हैं- जिसकी हम गर्दन दबा पाते हैं, लगता है हम उसके स्वामी हो गये हैं। महावीर के पीछे मैसोचिस्ट इकट्ठे हो गये। उन्हीं ने महावीर की पूरी परंपरा को विषाक्त किया, जहर डाल दिया।
कारण तो था, क्योंकि महावीर का कारण कुछ और था, लेकिन इन्हें वह कारण अपील किया, जंचा। कारण यह था कि महावीर कहते थे कि जब तक मैं जीवन के लिए पागल हूं तब तक मैं देख न पाऊंगा अंधेपन में कि मैं दूसरे के जीवन को नष्ट करने के लिए भी आतुर हो गया हूं। और जीवन के लिए पागल होना व्यर्थ है क्योंकि असंभव है। जीवन को बचाया नहीं जा सकता। जन्म के साथ ही मृत्यु प्रवेश कर जाती है। इसलिए जो इम्पासिबल है, उसके पीछे सिर्फ पागलपन है- जो असंभव है उसके पीछे सिर्फ पागलपन खड़ा होता है। मृत्यु होगी ही। वह उसी दिन तय हो गयी, जिस दिन जीवन हुआ। इसलिए महावीर कहते हैं, जीवन के लिए इतनी आकांक्षा ही हिंसा बन जाती है। इसे समझना है। इसे समझते ही जीवेषणा शून्य होने लगती है और जब जीवेषणा शून्य होने लगती है तो मृत्यु की इच्छा पैदा नहीं होती, मृत्यु का स्वीकार पैदा होता है। इनमें भेद है।
मत्य की इच्छा तो पैदा होती है जीवेषणा को चोट लगे तब, और मत्य का स्वीकार पैदा होता है जब जीवेषणा क्षीण हो तब, शांत हो
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