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________________ अहिंसा : जीवेषणा की मृत्यु कभी आपने किसी आदमी को इस भांति आत्महत्या करते देखा है, जिसकी जीवेषणा नष्ट हो गयी हो? नहीं। मैं चाहता हूं एक स्त्री मुझे मिले और नहीं मिलती तो मैं आत्महत्या के लिए तैयार हो जाता हूं। अगर वह मुझे मिल जाए तो मैं आत्महत्या के लिए तैयार नहीं हूं। मैं चाहता हूं कि एक बहुत बड़ी प्रतिष्ठा और यश और इज्जत के साथ जीऊं। मेरी इज्जत खो जाती है, मेरी प्रतिष्ठा गिर जाती है- मैं आत्महत्या करने को तत्पर हो जाता हूं। मुझे वह प्रतिष्ठा वापस लौटती हो, मुझे वह इज्जत फिर वापस मिलती हो तो मैं आखिरी किनारे से मौत के वापस लौट आ सकता हूं। धन खो जाता है किसी का, पद खो जाता है किसी का तो वह मरने को तैयार है। इसका अर्थ क्या है? महावीर कहते हैं- यह मृत्यु-एषणा नहीं है। यह केवल जीवन का इतना प्रबल आग्रह है कि मैं कहता हूं- मैं इस ढंग से ही जीऊंगा। अगर यह ढंग मुझे नहीं मिलता तो मर जाऊंगा। इसे थोड़ा ठीक से समझें। मैं कहता हूं, मैं इस स्त्री के साथ ही जीऊंगा। यह जीने की आकांक्षा इतनी आग्रहपूर्ण है कि इस स्त्री के बिना मैं नही जीऊंगा। मैं इस धन, मैं इस भवन, मैं इस पद के साथ ही जीऊंगा। अगर यह पद और धन नहीं है तो मैं नहीं जीऊंगा। यह जीने की आकांक्षा ने एक विशिष्ट आग्रह पकड़ लिया है। वह आग्रह इतना गहरा है कि वह अपने से विपरीत भी जा सकता है। वह आग्रह इतना गहरा है कि अपने से विपरीत भी जा सकता है। वह मरने तक को तैयार हो सकता है, लेकिन गहरे में जीवन की ही आकांक्षा है। ___ इसलिए महावीर इस जगत में अकेले चिंतक हैं, जिन्होंने कहा कि मैं तुम्हें मरने की आज्ञा भी दूंगा, अगर तुममें जीवेषणा बिलकुल न हो। सिर्फ अकेले विचारक हैं सारी पृथ्वी पर और सिर्फ अकेले धार्मिक चिंतक हैं जिन्होंने कहा कि मैं तुम्हें मरने की भी आज्ञा दूंगा, अगर तुममें जीवन की आकांक्षा बिलकुल न हो। लेकिन जिसमें जीवन की आकांक्षा नहीं है वह चाह के पीछे जीवन की आकांक्षा ही होती है। उलटे लक्षणों से बीमारियां नहीं बदल जाती हैं, जरूरी नहीं है। आज से सौ साल पहले चिकित्सा शास्त्रों में ऐलोपेथी की एक बीमारी का नाम था, वह सौ साल में खो गया है। उसका नाम था ड्राप्सी। अब उस बीमारी का नाम मेडिकल किताबों में नहीं है। हालांकि उस बीमारी के मरीज अब भी अस्पतालों में हैं, वे नहीं खो गये। मरीज तो हैं, लेकिन वह बीमारी खो गयी है। वह बीमारी इसलिए खो गयी कि पाया गया कि वह बीमारी एक नहीं है, वह सिर्फ सिम्प्टोमैटिक है। ड्राप्सी उस बीमारी को कहते थे जिसमें मनुष्य के शरीर का तरल हिस्सा किसी एक अंग में इकट्ठा हो जाता है। जैसे पैरों में सारी तरलता इकट्ठी हो गयी या पेट में सारा तरल द्रव्य इकट्ठा हो गया। सब पानी भर गया है, सब तरलता पेट में इकट्ठी हो गयी है। सारा शरीर सूखने लगा और पेट बढ़ने लगा और सारी तरलता पेट में आ गयी। उसको ड्राप्सी कहते थे। अगर अस्पताल में जाएं और एक आदमी के दोनों पैरों में तरल द्रव्य इकट्ठा हो गया, और एक आदमी के एब्डामन में सारा तरल द्रव्य इकट्ठा हो गया, तो लक्षण एक है। सौ साल तक यही समझा जाता था, बीमारी एक है। लेकिन पीछे पता चला कि यह तरल द्रव्य इकट्ठे होने के अनेक कारण हैं। बीमारियां अलग-अलग हैं। यह हृदय की खराबी से भी इकट्ठा हो सकता है। यह किडनी की खराबी से भी इकट्ठा हो सकता है। और जब किडनी की खराबी से इकट्ठा होता है तो बीमारी दूसरी है और जब हृदय की खराबी से इकट्ठा होता है तो बीमारी दूसरी है। इसलिए वह ड्राप्सी की बीमारी जो थी, नाम, वह समाप्त हो गया। अब पच्चीस बीमारियां हैं, उनके अलग-अलग नाम हैं। यह भी हो सकता है, लक्षण बिलकुल एक से हों और बीमारी एक हो। और यह भी हो सकता है कि बीमारियां दो हों, और लक्षण बिलकुल एक हों। लक्षणों से बहुत गहरे नहीं जाया जा सकता। महावीर ने 'संथारा' की आज्ञा दी। महावीर ने कहा है- किसी व्यक्ति की अगर जीवन की आकांक्षा शून्य हो गयी हो तो मैं कहता हूं, वह मृत्यु में प्रवेश कर सकता है। लेकिन उन्होंने कहा है कि वह भोजन छोड़ दे, पानी छोड़ दे। भोजन और पानी छोड़कर भी 77 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001820
Book TitleMahavira Vani Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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