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महावीर वाणी भाग : 1
पक्की है कि जब तक मैं मर ही नहीं गया हूं, तब तक मैं जीने की कोशिश करूंगा। सीढ़ियां नयी चाहिये ।
नयी सीढ़ियां लगायी गयीं, तब वह चढ़ा। फिर भी बहुत संभलकर चढ़ा। जब उसके गले में फंदा लगा ही दिया गया, और मजिस्ट्रेट ने कहा— नसरुद्दीन, तुझे कोई आखिरी बात तो नहीं कहनी है ?
नसरुद्दीन ने कहा, 'यस, आई हेव टु से समथिंग । दिस इज गोइंग टु बी ए लेसन टु मी। यह जो फांसी लगायी जा रही है, यह मेरे लिए एक शिक्षा सिद्ध होगी । '
मजिस्ट्रेट समझा नहीं । उसने कहा कि अब शिक्षा से भी क्या फायदा होगा?
नसरुद्दीन ने कहा कि अगर दोबारा जीवन मिला तो जिस वजह से फांसी लग रही है, वह काम मैं जरा संभलकर करूंगा। दिस इज गोइंग टु बी ए लेसन टु मी । गले में फंदा लगा हो तो भी आदमी दूसरे जीवन के बाबत सोच रहा होता है। दूसरा जीवन मिले तो इस बार जिस भूल चूक से पकड़े गये हैं और फांसी लग रही है वह भूल चूक नहीं करनी है - ऐसा नहीं— संभलकर करनी है। तो... दिस इज गोइंग टु बी ए लेसन टु मी ।
ऐसा ही हमारा मन है । किसी भी कीमत पर जीना है। महावीर यही पूछते हैं कि जीना क्यों है? बड़ा गहन सवाल उठाते हैं। शायद जिन्होंने पूछा है, जगत क्यों है? जिन्होंने पूछा है, सृष्टि किसने रची है? जिन्होंने पूछा है, मोक्ष कहां है? ये सवाल इतने गहरे नहीं हैं। ये सवाल बहुत ऊपरी हैं। महावीर पूछते हैं, जीना ही क्यों हैं? व्हाय दिस लस्ट फार लाइफ ? और इसी प्रश्न से महावीर का सारा चिंतन और सारी साधना निकलती है।
तो महावीर कहते हैं, यह जीने की बात ही पागलपन है। यह जीने की आकांक्षा ही पागलपन है। और इस जीने की आकांक्षा से जीवन बचता हो, ऐसा नहीं है; केवल दूसरों के जीवन को नष्ट करने की दौड़ पैदा होती है। बच जाता तो भी ठीक था। बचता भी नहीं है। कितना ही चाहो कि जीऊं, मौत खड़ी है और आ जाती है। कितने लोग इस जमीन पर हमसे पहले जीने की कोशिश कर चुके हैं। आखिर अंततः मौत ही हाथ लगती है। तो महावीर कहते हैं, जीवन का इतना पागलपन कि हम दूसरे को विनष्ट करने को तैयार हैं और अंत में मौत ही हाथ लगती है। महावीर कहते हैं— ऐसे जीवन के पागलपन को मैं छोड़ता हूं जिससे दूसरों के जीवन को नष्ट करने के लिए मैं तैयार होता और अपने को बचा भी नहीं पाता। जो व्यक्ति जीवेषणा छोड़ देता है वही अहिंसक हो सकता है। क्योंकि जब मुझे कोई आग्रह ही नहीं है कि जीऊं ही, तब मैं किसी का विनाश करने के लिए तैयार नहीं हो सकता। इसलिए महावीर की अहिंसा के प्राण में प्रवेश करना हो, तो वह प्राण है- • जीवेषणा का त्याग। इसका यह अर्थ नहीं है कि महावीर मरने की आकांक्षा रखते हैं। यह भ्रांति हो सकती है।
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फ्रायड ने इस सदी में मनुष्य के भीतर दो आकांक्षाओं को पकड़ा है। एक तो जीवेषणा और एक मृत्यु-एषणा । एक को वह कहता है, इरोज, जीवन की इच्छा। और एक को कहता है, थानाटोस, मृत्यु की इच्छा। वह कहता है कि जब जीवन की इच्छा रुग्ण हो जाती है तो मृत्यु की इच्छा में बदल जाती है। यह बात ठीक है । लोग आत्महत्याएं भी तो करते हैं। तो क्या महावीर राजी होंगे? आत्महत्या करने वाले को कहेंगे कि ठीक है तू! अगर जीवेषणा गलत है तो फिर मृत्यु की आकांक्षा और मृत्यु को लाने की कोशिश ठीक होनी चाहिए? फ्रायड कहता है— जिन लोगों की जीवेषणा रुग्ण हो जाती है वे फिर मृत्यु-एषणा से भर जाते हैं । फिर वे अपने को मारने में लग जाते हैं। आदमी आत्महत्या करता हुआ दिखाई तो पड़ता है। लेकिन फ्रायड को उतनी गहरी समझ नहीं है जितनी महावीर को है। महावीर कहते हैं— आत्महत्या करनेवाला भी जीवेषणा से ही पीड़ित है।
इसे थोड़ा समझना पड़ेगा ।
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