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कृष्ण ने गीता में कहा है – 'सर्वधर्मान् परित्यज्य, मामेकं शरणं व्रज'...अर्जुन, तू सब धर्मों को छोड़कर मुझ एक की शरण
में
आ।
__ कृष्ण जिस युग में बोल रहे थे, वह युग अत्यंत सरल, निर्दोष, श्रद्धा का युग था। किसी के मन में ऐसा नहीं हुआ कि कृष्ण कैसे अहंकार की बात कह रहे हैं कि तू सब छोड़कर मेरी शरण में आ। अगर कोई घोषणा अहंकारग्रस्त मालूम हो सकती है तो इससे ज्यादा अहंकारग्रस्त घोषणा दूसरी मालम नहीं होगी -- अर्जन को यह कहना कि छोड़ दे सब और आ मेरी शरण में। पर वह युग
अत्यंत श्रद्धा का युग रहा होगा, जब कृष्ण बेझिझक, सरलता से ऐसी बात कह सके और अर्जुन ने सवाल भी न उठाया कि क्या कहते हैं आप? आपकी शरण में और मैं आऊं? अहंकार से भरे हुए मालूम पड़ते हैं।
लेकिन बुद्ध और महावीर तक आदमी की चित्त दशा में बहुत फर्क पड़े। इसलिए जहां हिन्दू चिंतन 'मामेकं शरणं व्रज' पर केन्द्र मानकर खडा है वहीं बद्ध और महावीर की दष्टि में आमल परिवर्तन करना पड़ा। महावीर ने नहीं कहा कि तुम सब छोड़कर मेरी शरण में आ जाओ, न बुद्ध ने कहा। दूसरे छोर से पकड़ना पड़ा सूत्र को। तो बुद्ध का सूत्र है, वह साधक की तरफ से है। महावीर का सूत्र है, वह भी साधक की तरफ से है, सिद्ध की तरफ से नहीं। अरिहंत की शरण स्वीकार करता है, सिद्ध की शरण स्वीकार करता हूं, साधु की शरण स्वीकार करता हूं, केवली प्ररूपित धर्म की शरण स्वीकार करता हूं- यह दूसरा छोर है शरण और गति का। दो ही छोर हो सकते हैं। या तो सिद्ध कहे कि मेरी शरण में आ जाओ. या साधक कहे कि मैं आपकी शरण में आता हं।। ___ हिन्दू और जैन विचार में मौलिक भेद यही है। हिन्दू विचार में सिद्ध कह रहा है, आ जाओ मेरी शरण में; जैन विचार में साधक कहता है, मैं आपकी शरण में आता हूं। इससे बहुत बातों का पता चलता है। पहली तो यही बात पता चलती है कि कृष्ण जब बोल रहे थे तब बड़ा श्रद्धा का युग था और जब महावीर बोल रहे हैं तब बड़े तर्क का युग है। महावीर कहें- मेरी शरण आ जाओ, तत्काल लोगों को लगेगा, बडे अहंकार की बात हो गई।
दूसरे छोर से शुरू करना पड़ेगा। पर बुद्ध और महावीर... बुद्ध के परंपरा में भी सूत्र है- बुद्धं शरणं गच्छामि, संघं शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं गच्छामि – बुद्ध की शरण जाता हूं, संघ की शरण जाता हूं, धर्म की शरण जाता हूं। लेकिन महावीर और बुद्ध के सूत्र में भी थोड़ा सा फर्क है, वह खयाल में ले लेना जरूरी है। ऊपर से देखें तो दोनों एक-से मालूम पड़ते हैं -गच्छामि हो कि पवज्जामि हो, शरण जाता हूं या शरण स्वीकार करता हूं- एक से ही मालूम पड़ते हैं, पर उनमें भेद है। जब कोई कहता है, बुद्धं शरणं
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