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विनय शिष्य का लक्षण है
बुराई की चर्चा करते हैं तो इसका यह मतलब नहीं कि उस आदमी में भलाई है ही नहीं। आपने बुराई चुन ली। जब आप किसी
आदमी की भलाई की चर्चा करते हैं तब भी यह मतलब नहीं होता है कि उसमें बुराई है ही नहीं। आपने भलाई चुन ली। __ महावीर कहते हैं कि ऐसा बुरा आदमी खोजना कठिन है, जिसमें कोई भलाई न हो। क्योंकि बुराइयों के टिकने के लिए भी भलाइयों की जरूरत है। तो तुम चुनाव करना भलाई की चर्चा का। क्यों आखिर?
क्योंकि भलाई की जितनी चर्चा की जाये, उतनी खुद के भीतर भलाई की जड़ें गहरी बैठने लगती हैं। बुराई की जितनी चर्चा की जाये, बुराई की जड़ें गहरी बैठनी लगती हैं। हम जिसकी चर्चा करते हैं, अंततः हम वही हो जाते हैं। लेकिन हम सब बुराई की चर्चा कर रहे हैं। अगर हम अखबार उठा कर देखें तो पता ही नहीं चलता कि दुनिया में कहीं कोई भलाई भी हो रही होगी। सब तरफ बुराई हो रही है। सब तरफ चोरी हो रही है, सब तरफ हिंसा हो रही है। अखबार देख कर लगता है कि शायद अपने से छोटा पापी जगत में कोई भी नहीं है। यह सब क्या हो रहा चारों तरफ? और चेहरे पर एक रौनक आ जाती है। यह सारी बुराई आप संचित कर रहे हैं. अपने भीतर। यह सारी बाई आपके भीतर प्रवेश कर रही है। __ अगर हमें एक अच्छी दुनिया बनानी हो और अच्छे आदमी का जन्म देना हो तो हमें भलाई संचित करनी चाहिए, भलाई की फिक्र करनी चाहिए। और जब हम बुराई की चर्चा करते हैं तब हमें पता नहीं कि वह बुराई का संस्कार हम पर निर्मित होता चला जाता है। यह आदमी चोर है, वह आदमी चोर है, सारी दुनिया चोर है। जिस दिन आप चोरी करने जाते हैं भीतर आपको कछ ऐसा नहीं लगता कि आप कुछ नया करने जा रहे हैं। सभी यही कर रहे हैं। चोरी की जड़ मजबूत होती है।
जब आप कहते हैं, फलां आदमी अच्छा है,... जब आप चुनते हैं अच्छा तो आपके भीतर अच्छे की मूल्यवत्ता निर्मित होती है। और जब बुराई करने जाते हैं तो आपको लगता है, आप क्या कर रहे हैं! दुनिया में ऐसा कोई भी नहीं कर रहा है। तो महावीर कहते हैं, 'अप्रिय मित्र की भी पीठ पीछे भलाई ही गाता हो।'
हम तो प्रिय मित्र की भी पीठ पीछे बराई ही गाते हैं। "किसी प्रकार का झगड़ा-फसाद न करता हो।'
झगड़ा-फसाद की एक वृत्ति होती है। कुछ लोग फसादी होते हैं। फसादी का मतलब यह कि आप ऐसा कोई कारण ही नहीं दे सकते उन्हें, जिसमें से वह झगड़ा न निकाल लें। वह झगड़ा निकाल ही लेंगे। झगड़ा निकालने की एक कला है, एक कुशलता है। कुछ लोग उसमें इतने कुशल हो जाते हैं कि वे किसी भी चीज में से झगडा निकाल लेते हैं।
मैं अपने एक मित्र को जानता हूं। उनके पिता बड़े अदभुत थे। ऐसे कुशल थे जिसका कोई हिसाब नहीं। अगर उनका बेटा नहा धोकर, साफ-सुथरे कपड़े पहन कर दुकान पर आ जाये तो वह ग्राहकों को इकट्ठा कर लेते थे, कि देखो इनको, बाप मर गया कमा-कमा कर, ये मौज उड़ा रहे हैं। हमने कभी साबुन न देखी, आप देवी देवताओं को लजा रहे हैं। देखें।
तो मैंने उनके बेटे को कहा कि तू एक दिन बिना ही नहाये पहुंच जा, गंदे ही कपड़े पहन कर पहुंच जा! क्यों उनको बार-बार कष्ट देता है। वह पहुंच गया। पिता ने फिर भीड़ इकट्ठी कर ली और कहा, देखो, जब मैं मर जाऊं तब इस हालत में घूमना। अभी मैं जिंदा है, अभी नहाओ धोओ, अभी ठीक से रहो।
फिर बहुत प्रयोग किये हमने, सब तरह के प्रयोग किये, लेकिन पिता को...उनकी कुशलता अपरिसीम थी। कुछ भी करो, उसमें से फसाद निकाला जा सकता है।
महावीर कहते हैं, 'झगड़ा-फसाद न करता हो।' नहीं तो सीख न पायेगा, जीवन को बदल न पायेगा। ऊर्जा नष्ट हो जाती है, इन
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