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________________ विनय शिष्य का लक्षण है बुद्ध एक गांव के बाहर ठहरे हैं। हजारों भिक्षु-भिक्षुणियां उनके पास हैं। गांव का सम्राट मिलने आया है। पास आकर उसे शक होने लगा। आम्र-कुंज है, उसके बाहर आकर उसने अपनी वजीरों को कहा कि मुझे शक होता है, इसमें कुछ धोखा तो नहीं है ? क्योंकि तुम कहते थे कि हजारों लोग वहां ठहरे हैं, लेकिन आवाज जरा भी नहीं हो रही है। जहां हजारों लोग ठहरे हों और तुम कहते हो, बस यह जो आम की कतार है, इसके पीछे के ही वन में वे लोग ठहरे हैं। जरा भी आवाज नहीं है, मुझे शक होता है। उसने अपनी तलवार बाहर खींच ली। उसने कहा, इसमें कोई षडयंत्र तो नहीं? उसके वजीरों ने कहा, आप निश्चिंत रहें, वहां सिर्फ एक ही आदमी बोलता है, बाकी सब चुप हैं। वह बुद्ध के सिवाय वहां कोई बोलता ही नहीं। और जंगल में शांति है, क्योंकि बुद्ध नहीं बोल रहे होंगे, और तो वहां कोई बोलता ही नहीं। ___ मगर वह जो सम्राट था, उसका नाम था, अजातशत्रु। नाम भी हम बड़े मजेदार देते हैं, जिसका कोई शत्रु पैदा न हुआ हो। हालांकि शांति में भी उसे शत्रु दिखायी पड़ता है, सन्नाटे में भी। लेकिन वह तलवार निकाले ही गया। जब उसने देख लिया हजारों भिक्ष बैठे हैं चुपचाप, बुद्ध एक वृक्ष की छाया में बैठे हैं, तब उसने तलवार भीतर की। तब उसने बुद्ध से पहला प्रश्न यही पूछा,इतनी चुप्पी, इतना मौन क्यों है ? इतने लोग हैं, कोई बात-चीत नहीं, कोई चर्चा नहीं, दिन-रात ऐसे बीत जाते हैं? बुद्ध ने कहा, ये लोग मेरे पास होने के लिए यहां है। अगर ये बोलते रहें तो ये अपने ही पास होंगे। ये अपने को मिटाने को यहां आये हैं। ये यहां हैं ही नहीं। बस इस जगंल में जैसे मैं ही हं और ये सब मिटे हए शन्य हैं। ये अपने को मिटा रहे हैं। जिस दिन ये पूरे बिखरे जायेंगे उस दिन ही ये मुझे पूरा समझ पायेंगे। और जो मैं इनसे कहना चाहता हूं, वह इनके मौन में ही कहा जा सकता है। और अगर मैं शब्द का भी उपयोग करता हूं, तो वह यही समझाने के लिए कि वे कैसे मौन हो जायें। शब्द का उपयोग करता हूं, मौन में ले जाने के लिए, फिर मौन का उपयोग करूंगा सत्य में ले जाने के लिये। शब्द से कोई सत्य में ले जाने का उपाय नहीं है। शब्द से, मौन में ले जाया जा सकता है। __ बस शब्द की इतनी ही सार्थकता है कि आपकी समझ में आ जाये कि चुप हो जाना है। फिर सत्य में ले जाया जा सकता है। सामीप्य का यह अर्थ है। ___ सारिपुत्त बुद्ध का खास शिष्य था। जब वह स्वयं बुद्ध हो गया तो बुद्ध ने उससे कहा, कि अब सारिपुत्त तू जा और मेरे संदेश को लोगों तक पहुंचा। सारिपुत्त उठा, नमस्कार करके चलने लगा। ___ आनंद बुद्ध का दूसरा प्रमुख शिष्य था। उसे अब तक ज्ञान नहीं हुआ था। उसने बुद्ध से कहा, इस भांति मुझे कभी दूर मत भेज देना। मेरी प्रार्थना, इतना खयाल रखना, कभी मुझे ऐसी आज्ञा मत देना कि दूर चला जाऊं। मैं तो समीप ही रहना चाहता हूं। बुद्ध ने कहा, तू समीप नहीं है, इसलिए समीप रहना चाहता है। सारिपुत्त उठा और चल पड़ा। वह कहीं भी रहे, वह मेरे ही समीप रहेगा। बीच का फासला अब कोई फासला नहीं है। __सारिपुत्त चल पड़ा। वह गांव-गांव जगह-जगह संदेश देता रहा। लेकिन रोज सुबह जैसे उठकर वह बुद्ध के चरणों में सिर रखता था। जिस दिशा में बुद्ध होते, रोज सुबह उठकर उनके चरणों में सिर रखता। उसके शिष्य उससे पूछते, सारिपुत्त अब तो तुम भी स्वयं बुद्ध हो गये, अब तुम किसके चरणों में सिर रखते हो? अब क्या है जरूरत? सारिपुत्त कहता, जिनके कारण मैं मिट सका जिनके कारण मैं समाप्त हुआ, जिनके कारण मैं शून्य हुआ। फिर उसके शिष्य कहते, लेकिन बुद्ध तो बहुत दूर हैं, सैकड़ों मील दूर हैं, यहां से तुम्हारे चरणों में किये गये प्रणाम कैसे पहुंचेंगे? तो सारिपुत्त कहता, अगर वे दूर होते तो मैं उन्हें छोड़कर ही न आता। छोड़कर आ सका इसी भरोसे कि अब कहीं भी रहं. वे मेरे पास हैं। 491 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001820
Book TitleMahavira Vani Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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