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महावीर वाणी
भाग 1
है I
संततियां – क्रोध की, मोह की । इसलिए लोभ को पाप का मूल कहा मित्र ने है कि ज्यादा धन कमा कर ज्यादा दान?
पूछा
• धन से लोभ का संबंध नहीं है। दान से भी लोभ का संबंध नहीं है। ज्यादा - ज्यादा से संबंध है। ज्यादा धन कमाने वाला ज्यादा में अटका है। कल यह ज्यादा दान भी कर सकता, तब भी ज्यादा में ही अटका होगा।
दान अच्छा है, लेकिन प्रायश्चित की तरह। और उसका कोई विधायक मूल्य नहीं है। जैसे माफी मांगना अच्छा है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि ऐसे उपाय करना चाहिए, जिससे माफी मांगनी पड़े। कि पहले गाली देनी चाहिए, फिर माफी मांग लेनी चाहिए। क्योंकि माफी मांगना बहुत अच्छा है । माफी मांगना अच्छा है, प्रायश्चित की तरह । माफी कोई पुण्य नहीं है। माफी केवल पाप का प्रायश्चित है। दान कोई पुण्य नहीं है, केवल वह जो इकट्ठा किया था धन, उसका प्रायश्चित है। दान की कोई विधायकता नहीं है, कोई पाजिटिविटी नहीं है दान की । इसलिए जो लोग कहते हैं, खूब दान करो, अगर उसका मतलब यह है कि पहले खूब धन इकट्ठा करो, फिर दान करो तो यह तो गणित के साथ बहुत तरकीब होगी। पहले खूब पाप करो, फिर पुण्य करो
एक पादरी अपने स्कूल के बच्चों से पूछ रहा था। उसने बहुत समझाया था उनको कि मुक्ति के लिए क्या आवश्यकता - सालवेशन के लिए, छुटकारे के लिए। समझाया था कि जीसस की प्रार्थना, पूजा, भगवान का स्मरण यह सब जरूरी है, जिसको मुक्त होना हो । फिर उसने सब समझाने के बाद पूछा कि मुक्त होने के लिए सबसे ज्यादा जरूरी चीज क्या है? एक छोटे से बच्चे ने हाथ उठाया, हाथ हिलाया। वह पादरी बहुत खुश हुआ। वह बच्चा खड़ा हुआ। उसने पूछा, क्या है सबसे जरूरी चीज ? उसने कहा, पाप करना ।
जब तक पाप न करो, छूटना किससे है? छुटकारे का क्या अर्थ है ? छुटकारे के लिए पाप करना पहली जरूरत है। दान के लिए पहले धन इकट्ठा करना। लेकिन यह जाल समझने जैसा है। जो आदमी ज्यादा धन इकट्ठा कर रहा है, वह दान कर कैसे पायेगा? जितना ज्यादा पर उसका जोर होगा, उतना ही छोड़ना मुश्किल होगा। क्योंकि ज्यादा को पकड़ने की आदत हो जायेगी। हां, वह दान कर सकता है, अगर यह दान इनवेस्टमेंट हो। अगर उसको यह पक्का भरोसा हो जाये कि जितना मैं देता हूं, उससे ज्यादा मुझे मिलेगा, तो वह दान कर सकता है। उसे पक्का जाये कि यहां देता हूं, स्वर्ग में मिलेगा। आजकल लोग दान करने में उतने तत्पर नहीं दिखायी पड़ते, उसका कारण, स्वर्ग संदिग्ध हो गया है। और कोई कारण नहीं । उतना भरोसा नहीं रहा साफ-साफ कि है भी। अगर पुराने लोग दानी थे तो आप यह मत समझना कि आपसे कम लोभी थे। स्वर्ग सुनिश्चित था । उसमें कोई शक की बात ही न थी। यहां देना और वहां लेना । नगद था, उसमें कहीं कोई उधारी का मामला न था । अब सब गड़बड़ है। यहां हाथ से जाता हुआ नगद मालूम पड़ता है, वहां स्वर्ग का मिलता हुआ नगद नहीं है।
जिन्होंने दान किये हैं पुराने लोगों ने, लोभ के कारण ही किये हैं, लोभ के विपरीत नहीं। लोभ के विपरीत दान बड़ी और बात है। लोभ के कारण दान बड़ी और बात है। क्या फर्क होगा दोनों में? एक फर्क होगा। ज्यादा मौजूद नहीं रहेगा दान में। अगर यह लगता है कि ज्यादा दान करूं, तो क्यों लगता है, ताकि ज्यादा पा लूं? यह ज्यादा की दौड़ क्या है? यही दौड़ कल थी कि ज्यादा धन इकट्ठा करूं, अब यही दौड़ है कि ज्यादा दान करूं। क्यों ? तुम ज्यादा के बिना क्यों नहीं हो सकते हो? यह ज्यादा - यह बुखार ज्यादा का आवश्यक नहीं है। और जब कोई व्यक्ति ज्यादा से मुक्त हो जाता है तो शांत हो जाता। तब लोभ शांत हो जाता है। तो जिन्होंने वस्तुतः दान किया है, उन्होंने कुछ पाने के लिए दान नहीं किया है। वह सिर्फ प्रायश्चित है। जो व्यर्थ का इकट्ठा कर लिया था वह वापस लौटा दिया है। उससे आगे कोई पुण्य मिलने वाला नहीं है, पीछे के किये पाप का निपटारा है। वह सिर्फ हिसाब
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