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ब्रह्मचर्य : कामवासना से मुक्ति
देवता को भी मोक्ष पाना हो तो मनुष्य तक वापस लौट आना पड़ता है। मनुष्य के अतिरिक्त मुक्त होने का कोई उपाय नहीं है। लेकिन जरूरी नहीं है कि कोई मनुष्य होने से ही मुक्त हो जाये। मनुष्य होने से केवल मुक्ति की संभावना है, लेकिन अगर आप भी स्वप्न में डबे रहते हैं तो आप उस अवसर को खो देंगे।
मनुष्य का अर्थ है-जहां हम जाग सकते हैं, जहां हम चाहें तो इंद्रियों से अपने को तोड़ ले सकते हैं, जहां हम चाहें तो रस समाप्त हो सकता है और चेतना रसमुक्त हो सकती है। इस स्थिति को महावीर ने वीतराग कहा है। चेतना जब ऐसी स्थिति में होती है तो उसका बाहर कोई भी रस नहीं है, कोई भी। बाहर जाने की कोई आकांक्षा शेष न रही। किसी से भी कुछ मिल सकता है, यह भाव गिर गया। कहीं से कोई मांगना न रहा, कोई प्रार्थना न रही, कोई अभीप्सा न रही। इस चेतना की अवस्था को महावीर कहते हैं, वीतराग।
'जो वीतराग है वह शारीरिक और मानसिक सभी दुखों से छूट जाता है।' 'यह ब्रह्मचर्य धर्म ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है और जिनोपदिष्ट है।' यह शब्द जिनोपदिष्ट थोड़ा समझ लेने जैसा है। हिंदू कहते हैं, वेद ईश्वर के वचन हैं, इसलिए सत्य हैं। मुसलमान कहते हैं कि कुरान ईश्वर का संदेश है, इसलिए सत्य है। ईसाई कहते हैं कि बाइबिल ईश्वर के निजी संदेशवाहक, उनके अपने बेटे जीसस के वचन हैं, ईश्वर से आया हुआ संदेश है आदमी के लिए, इसलिए सत्य है। __ महावीर एकदम अशास्त्रीय हैं। वे किसी शास्त्र को प्रमाण नहीं मानते। वे वेद को प्रमाण नहीं मानते। इसलिए हिंदुओं ने तो महावीर को नास्तिक कहा। क्योंकि जो वेद को न माने, वह नास्तिक ।
महावीर जैसे परम आस्तिक को भी नास्तिक कहना पड़ा, क्योंकि वेद के प्रति उनकी कोई श्रद्धा नहीं, शास्त्र के प्रति उनकी कोई श्रद्धा नहीं। उनकी श्रद्धा अजीब है, अनूठी है। उनकी श्रद्धा उस आदमी में है, जिसने अपनी इंद्रियों को जीत लिया हो-उसके वचन में। __जिनोपदिष्ट का अर्थ होता है, उस आदमी का वचन जिसने अपनी इंद्रियों को जीत लिया है। कोई परमात्मा नहीं, कोई ऊपरी शक्ति नहीं, बल्कि उस व्यक्ति की शक्ति ही परम प्रमाण है जिसने अपनी इंद्रियों को जीत लिया है। इसलिए महावीर कहते हैं, जिनोपदिष्ट -जिसने अपने को जीता हो। जिन का अर्थ होता है, जिसने अपने को जीता हो। जिसकी सारी इंद्रियों की गुलामी टूट गयी हो, जो अपने भीतर स्वतंत्र हो गया हो, जो अपने भीतर मुक्त हो गया हो; इस व्यक्ति के वचन का मूल्य है। देवताओं के वचन को महावीर कहते हैं, कोई मूल्य नहीं, क्योंकि वे अभी वासना से ग्रस्त हैं। ___ अगर हम वेद के देवताओं को देखें, तो इंद्र को आप फुसला ले सकते हैं, जरा सी खुशामद और स्तुति से। राजी कर ले सकते हैं, जो भी आपको करवाना हो। नाराज भी हो सकता है इंद्र अगर आप ठीक-ठीक प्रार्थना, उपासना न करें, नियम से आदर, स्तुति न करें तो इंद्र नाराज भी हो सकता है। अगर हम यहूदी ईश्वर को देखें, तो वह खतरनाक बातें कहता हुआ मालूम पड़ता है कि अगर मुझे नहीं माना तो मैं तुम्हें नष्ट कर दूंगा। आग में जलाऊंगा, सड़ाऊंगा। ___ महावीर कहते हैं कि इन वचनों का क्या मूल्य हो सकता है! वे कहते हैं, वही चेतना परम शास्त्र है, जिसने अपनी इंद्रियों को जीत लिया हो। उसकी बात भरोसे योग्य है।
क्यों?
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