________________
ब्रह्मचर्य : कामवासना से मुक्ति
हूं, ताकि आप महावीर को समझ सकें। महावीर कहते हैं, किस बचपन में उलझे हो? जो भी तुम अनुभव कर रहे हो सुख, वे सिर्फ छोटे से कंपन हैं। उन कंपनों का क्या मूल्य है? स्वप्नवत! __ और आदमी जन्मों-जन्मों, जीवन-जीवन उन्हीं कंपनों में अपने को गवां देता है। उन्हीं में अपने को खो देता है। कोई स्वाद के लिए जीता है, कोई सुगंध के लिए जीता है, कोई रूप के लिए जीता है, कोई ध्वनि के लिए जीता है। लेकिन यह जीना हम कुछ कंपनों से तृप्त हो जायेंगे? होता तो यह है कि जितना पुनरुक्त करते हैं उन कंपनों को, उतनी ऊब बढ़ती चली जाती है। फंसते भी जाते हैं, आदत भी बनती है, ऊबते भी चले जाते हैं, कुछ मिलता भी नहीं मालूम पड़ता। और फिर भी एक मजबूरी, एक
आब्सेशन, और हम वही करते चले जाते हैं, जिससे कुछ मिलता दिखायी नहीं पड़ता। धीरे-धीरे सब कंपन बोथले हो जाते हैं। फिर उनसे कुछ भी पैदा नहीं होता, लेकिन न उन कंपनों को करें, तो उदासी मालूम पड़ती है, खालीपन मालूम पड़ता है, एम्पटीनेस मालूम प पड़ती है। इसलिए करना भी पड़ता है। ___ महावीर कहते हैं, जो व्यक्ति कंपनों में उलझा है,वह संसार में उलझा है। इन कंपनों से ऊपर उठे बिना कोई व्यक्ति आत्मा को उपलब्ध नहीं होता। कैसे ऊपर उठेंगे? तो वे कहते हैं, शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श इन पांच प्रकार के काम गुणों को भिक्षु सदा के लिए त्याग दे। क्या करेंगे त्याग में आप? क्या पानी न पीयेंगे? क्या भोजन न करेंगे? और जब पानी पीयेंगे, में आयेगा। क्या आखें न खोलेंगे? __रास्ते पर चलेंगे, आंख खोलनी पड़ेगी। आवाज होगी, कोई गीत गायेगा। कोई मधुर स्वर सुनायी पड़ेगा, कान सुनेंगे। त्याग कैसे करेंगे?
त्याग का एक ही गहन अर्थ है, और वह कि जब भी कोई चीज सुनायी पड़े, स्वाद में आये, दिखायी पड़े तो ध्यान को उससे तोड़ लेना, भीतर ध्यान को तोड़ लेना। आंखें चाहे देखें, तुम मत देखना। जीभ स्वाद ले, तुम स्वाद मत लेना।
जनक को किसी ने पूछा था, किसी संन्यासी ने, कि आप इस महल में, इन रानियों के बीच, इतने वैभव में रहकर किस प्रकार ज्ञानी हैं? तो जनक ने कहा, कुछ दिन रुको, समय पर उत्तर मिल जायेगा। और उत्तर समय पर ही मिल सकते हैं, समय के पहले दिये गये उत्तर किसी अर्थ के नहीं होते।
संन्यासी जनक के पास रुका–एक दिन. दो दिन. तीन दिन। चौथे दिन सबह ही सबह भोजन के लिए संन्यासी आ रहा था, जनक खद बैठकर उसे भोजन कराते थे। सिपाहियों की एक टुकड़ी आयी, संन्यासी को घेर लिया और संन्यासी को कहा महाराज ने कहा है कि आज सांझ आपको सूली पर चढ़ा दिया जायेगा।
उस संन्यासी ने कहा, लेकिन मेरा अपराध, मेरा कसूर? सिपाहियों ने कहा, यह आप महाराज से ही पूछ लेना। हमें जितनी आज्ञा है, वह इतनी है। फिर वे उसे लेकर भोजन के लिए आये, फिर वह भोजन के लिए थाली पर बैठा। महाराज बैठकर पंखा झलते रहे। वह भोजन भी करता रहा। लेकिन उस दिन स्वाद नहीं आया। सांझ मौत थी, ध्यान हट गया।
भोजन के बाद जनक ने पूछा कि सब ठीक तो था! कोई कमी तो न थी! उसने कहा, 'क्या ठीक था? क्या कमी न थी?' सम्राट ने पूछा, 'रसोइये ने अभी-अभी खबर दी कि वह नमक डालना भूल गया आपको पता नहीं चला? उस संन्यासी ने कहा, 'कुछ भी पता नहीं चला, भोजन किया भी या नहीं किया। यह भी ऐसा लगता है, जैसे कोई स्वप्न, सांझ
431
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org