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ब्रह्मचर्य-सूत्र : 1
विरई अबंभचेरस्स, काम-भोगरसन्नुणा । उग्गं महव्ययं बंमं, धारेयव्वं सुदुक्करं ।।
मूलमेयमहम्मस्स महोदोससमुस्सयं । तम्हा मेहुणसंसग्गं, निग्गंधा वज्जयन्ति णं।। विभूसा ईस्थिसंसग्गो, पणीयं रसभोयणं । नरस्सऽत्तगवेसिस्स, विसं तालउडं जहा।।
जो मनुष्य काम और भोगों के रस को जानता है, उनका अनुभवी है, उसके लिए अब्रह्मचर्य त्यागकर, ब्रह्मचर्य के महाव्रत को धारण करना अत्यन्त दुष्कर है।
निर्ग्रन्थ मुनि अब्रह्मचर्य अर्थात मैथुन-संसर्ग का त्याग करते हैं, क्योंकि यह अधर्म का मूल ही नहीं, अपितु बड़े दोषों का भी स्थान
जो मनुष्य अपना चित्त शुद्ध करने, स्वरूप की खोज करने के लिए तत्पर है उसके लिए देह का शृंगार, स्त्रियों का संसर्ग और स्वादिष्ट तथा पौष्टिक भोजन दुध, मलाई, घी, मक्खन, विविध मिठाइयां आदि - का सेवन विष जैसा।
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