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________________ धर्म का मार्ग : सत्य का सीधा साक्षात् कभी आपने खयाल किया कि जो-जो आप नहीं कर पाये हैं, जो चोरी नहीं कर पाये, उसके लिए भी पछता रहे हैं। जो झूठ नहीं बोल पाये उसके लिए भी पछताते हैं। जो बेईमानी अगर कर लेते ! ... तो अभी कहीं के गवर्नर होते, या कहीं चीफ मिनिस्टर होते, नहीं कर पाये। नाहक जेल गये और आये। जरा सी तरकीब लगा लेते, तो मन पीड़ा झेलता चला जाता है। अगर आपको नया समय भी मिले, तो आप पुनरुक्ति ही करेंगे; क्योंकि आपको मूल खयाल में नहीं है कि आपने जो किया, वह क्यों किया? वह अहंकार के कारण आपने गलत रास्ता चुना। अगर अहंकार मौजूद है, आप फिर गलत रास्ता चुनेंगे। फिर गलत रास्ता चुनेंगे। अहंकार प्रवृत्ति है—गलत रास्ता चुनने की। अगर अहंकार खो जाए, तो आप समय का उपयोग कर सकते हैं। इसलिए महावीर ने अंतिम सूत्र में बात कही-'जब तक बुढ़ापा नहीं सताता, जब तक व्याधियां नहीं सतातीं, जब तक इंद्रियां अशक्त नहीं होती, तब तक धर्म का आचरण कर लेना चाहिए। बाद में कुछ भी नहीं होगा।' यहां हिंदू और जैन विचार में एक बहुत मौलिक भेद है। हिंदू विचार सदा से मानता रहा है कि संन्यास, धर्म, ध्यान, योग सब बुढ़ापे के लिए है। अगर महावीर ने इस विचार में कोई बड़ी से बड़ी क्रांति पैदा की तो इस सूत्र में है। वह यह कि यह बुढ़ापे के लिए नहीं है। ___ बड़े मजे की बात है कि अधर्म जवानी के लिए है, और धर्म बुढ़ापे के लिए; भोग जवानी के लिए, और योग बुढ़ापे के लिए। क्यों? क्या योग के लिए किसी शक्ति की जरूरत नहीं है ? जब भोग तक के लिए शक्ति की जरूरत है, तो योग के लिए शक्ति की जरूरत नहीं है ? लेकिन उसका कारण है-उसका कारण है, और वह कारण यह है कि हम भलीभांति जानते हैं, कि भोग तो बुढ़ापे में किया नहीं जा सकता, योग देखेंगे। हो गया तो ठीक है, न हुआ तो क्या हर्ज है। भोग छोड़ा नहीं जा सकता, योग छोड़ा जा सकता है। तो भोग तो अभी कर लें और योग को स्थगित रखें। जब भोग करने योग्य न रह जायें, तब योग कर लेंगे। कन ध्यान रखना. वही शक्ति. जो भोग करती है. वही शक्ति योग करती है। दसरी कोई शक्ति आपके पास है नहीं। आदमी के पास शक्ति तो एक ही है; उसी से वह भोग करता है, उसी से वह योग करता है। इसलिए महावीर की दृष्टि बड़ी वैज्ञानिक है। महावीर कहते हैं कि जिस शक्ति से भोग किया जाता है, उसी से तो योग किया जाता है। वह जो वीर्य, वह जो ऊर्जा संभोग बनती है, वही वीर्य, वही ऊर्जा, तो समाधि बनती है। जो मन भोग का चिंतन करता है, वही मन तो ध्यान करता है। जो शक्ति क्रोध में निकलती है, वही शक्ति तो क्षमा में खिलती है। उसमें फर्क नहीं है, शक्ति वही है। शक्ति हमेशा तटस्थ है, न्यूट्रल है। आप क्या करते हैं, इस पर निर्भर करता है। एक आदमी अगर ऐसा कहे कि धन मेरे पास है, इसका उपयोग में भोग के लिए करूंगा, और जब धन मेरे पास नहीं होगा तब जो बचेगा, उसका उपयोग दान के लिए करूंगा। मुल्ला नसरुद्दीन मरा तो उसने अपनी वसीयत लिखी। वसीयत में उसने लिखवाया अपने वकील को कि लिखो, मेरी आधी संपत्ति मेरी पत्नी के लिए, नियमानुसार। मेरी आधी संपत्ति मेरे पांच पुत्रों में बांट दी जाये; और बाद में जो कुछ बचे गरीबों को दान कर दिया जाये। लेकिन वकील ने पूछा, कुल संपत्ति कितनी है ? मुल्ला ने कहा, यह तो कानूनी बात है, संपत्ति तो बिलकुल नहीं है। संपत्ति तो मैं खतम कर चुका हूं। लेकिन वसीयत रहे, तो मन को थोड़ी शांति रहती है; कि कुछ करके आये, कुछ छोड़ कर आये। करीब-करीब जीवन ऊर्जा के साथ हमारा यही व्यवहार है। महावीर कहते हैं, 'भोग के जब क्षण हैं, तभी योग के भी क्षण हैं'। भोग जब पकड़ रहा है, तभी योग भी पकड़ सकता है। इसलिए महावीर कहते हैं, जब बुढ़ापा सताने लगे, जब व्याधियां बढ़ जायें, और जब इंद्रियां अशक्त हो जायें, तब धर्म का आचरण नहीं हो सकता 379 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001820
Book TitleMahavira Vani Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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