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________________ सामायिक : स्वभाव में ठहर जाना कि कहां से उठते हैं तो धीरे-धीरे आप पाएंगे कि वे आपके ही भीतर अंधेरे से आते हैं। और अगर आप उनके जन्म स्त्रोत पर ध्यान रखें तो धीरे-धीरे आप पाएंगे कि वे आपको अंधेरे में भी दिखाई पड़ने लगे हैं, और जब वे चले जाते हैं तब भी आपके सामने से भरे जा रहे हैं, मिट नहीं रहे हैं। अगर आप उनका पीछा करेंगे तो वे धीरे-धीरे आपको अंधेरे में भी जाते हुए दिखाई पड़ेंगे। आप उनका अंधेरे में भी पीछा कर सकते हैं। चेतना विचार से भरी है; जैसे आकाश वायु से भरा है वैसी चेतना विचार से भरी है। जब वायु का धक्का लगता है, आपको वायु का पता चलता है, और जब धक्का नहीं लगता है तो पता नहीं चलता है। जब कोई विचार आपको धक्का देता है तब आपको पता चलता है, अन्यथा आपको पता भी नहीं चलता। विचार बहते रहते हैं। आप अपने सौ विचारों में से एक का भी मुश्किल से पता रखते हैं, हते रहते हैं। और भी मजे की बात है कि हवा तो धक्का देती है तब पता भी चलता है, लेकिन आकाश का आपको कोई पता नहीं चलता क्योंकि वह धक्का भी नहीं देता। __तो आपकी चेतना में जो विचार उड़ते रहते हैं उनका आपको पता चलता है और चेतना का कभी पता नहीं चलता, क्योंकि उसका कोई धक्का नहीं है। दो उपाय हैं—या तो आप इन विचारों से बचना चाहें तो इस खपड़े से जो छेद हो गया है उसे बंद कर दें, तो आपको विचार दिखाई नहीं पड़ेंगे। नींद में यही होता है। वह जो चेतना की थोड़ी-सी धारा आपको दिखाई पड़ती थी जागने में आप उसको भी बंद करके सो जाते हैं। फिर आपको कुछ दिखाई नहीं पड़ता सब बंद हो जाता है।। __ गहरी बेहोशी में भी यही होता है। हिप्नोसिस, सम्मोहन में भी यही होता है। इसलिए विचार से जो लोग पीड़ित हैं, वे लोग अनेक बार आत्म-सम्मोहन की क्रियाएं करने लगते हैं और आत्म-सम्मोहन को ध्यान समझ लेते हैं। वह ध्यान नहीं है। वह सिर्फ अपनी चेतना को बुझा लेना है। अंधेरे में डूब जाना है। उसका भी सुख है। शराब में उसी तरह का सुख मिलता है, गांजे में, अफीम में, उसी तरह का सुख मिलता है। चेतना की जो छोटी-सी धारा बह रही थी वह भी बंद हो गयी, घप्प अंधेरे में खो गए। बडी शांति मालम पडती है। वह अशांति मालूम पड़ती थी प्रकाश की किरण। महावीर का ध्यान ऐसा नहीं है जिसमें प्रकाश की किरण को बुझा देना है। महावीर का ध्यान ऐसा है जिसमें सारे खपड़ों को अलग कर देना है, पूरे छप्पर को खुला छोड़ देना है ताकि पूरे कमरे में प्रकाश भर जाए। ___ यह भी बड़े मजे की बात है, जब पूरे कमरे में प्रकाश भर जाता है तब भी धूलकण दिखाई पड़ना बंद हो जाते हैं। जब पूरे कमरे में प्रकाश भर जाता है तब भी धूलकण नहीं दिखाई पड़ते; जब पूरे कमरे में अंधेरा हो जाता है तब भी धूलकण दिखाई नहीं पड़ते। जब पूरे कमरे में अंधेरा होता है और जरा से स्थान में रोशनी होती है तब धूलकण दिखाई पड़ते हैं। असल में धूलकणों को दिखाई पड़ने के लिए प्रकाश की धारा भी चाहिए और अंधेरे की पृष्ठभूमि भी चाहिए। ___ तो दो उपाय हैं इन कणों को भूल जाने का। एक उपाय तो है कि पूरा अंधेरा हो जाए तो इसलिए दिखाई नहीं पड़ते क्योंकि प्रकाश ही नहीं है, दिखाई कैसे पड़ेंगे। या पूरा प्रकाश हो जाए तो भी दिखाई नहीं पड़ते क्योंकि इतना ज्यादा प्रकाश है कि उतने छोटे-से धूलकण दिखाई नहीं पड़ सकते, प्रकाश दिखाई पड़ने लगता है। पृष्ठभूमि न होने से धूलकण खो जाते हैं। तो पहला तो यह फर्क समझ लें कि बहुत से प्रयोग हैं ध्यान के जो वस्तुतः मूर्छा के प्रयोग हैं, ध्यान के प्रयोग नहीं हैं। जिनमें आदमी अपने कांशस को अनकांशस में डुबा देता है। जिनमें वह गहरी नींद में चला जाता है। उठने के बाद उसे शांति भी मालूम पड़ेगी, स्वस्थ भी मालूम पड़ेगा, ताजा भी मालूम पड़ेगा। लेकिन वे उपाय सिर्फ चेतना को डुबाने के थे। उससे कोई क्रांति घटित नहीं होती। श्री महेश योगी जो ध्यान की बात सारी दुनिया में करते हैं, वह सिर्फ मूर्छा का प्रयोग है। जिसे वे ट्रांसेंडेण्टल मेडिटेशन कहते हैं; जिसे भावातीत ध्यान कहते हैं वह ध्यान भी नहीं है, भावातीत तो बिलकुल नहीं है; न तो ट्रांसेंडेण्टल है, न मेडिटेशन है। ध्यान इसलिए 319 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001820
Book TitleMahavira Vani Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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