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________________ महावीर वाणी भाग : 1 लेकिन कभी आपने इसके विपरीत बात देखी है? अगर कोई किसी के संबंध में निंदा करे तो आपका मन एकदम मानने को आतुर होता है। आप निंदा के लिए प्रमाण नहीं पूछते हैं। अगर कोई आदमी कहे कि फलां आदमी ब्रह्मचारी है; तो आप पूछते हैं— प्रमाण क्या है? लेकिन कोई आदमी कहे फलां आदमी व्यभिचारी है; आपने प्रमाण पूछा है? नहीं, फिर तो कोई जरूरत नहीं रह जाती प्रमाण की । कहना पर्याप्त है। किसी ने कहा तो पर्याप्त है । और ध्यान रहे, अगर कोई कहे कि दूसरा आदमी ब्रह्मचर्य को उपलब्ध है तो आप बड़े मन को मसोसकर मान सकते हैं, प्रसन्नता से नहीं। और जब आप दूसरे को कहेंगे, तो जितने जोर से उसने कहा था उस जोर में कमी आ जाएगी। तीन चार आदमियों में यात्रा करते-करते वह ब्रह्मचर्य खो जाएगा। लेकिन अगर किसी ने कहा- फलां आदमी व्यभिचारी है तो जब आप दूसरे से कहते हैं, तो आपने खयाल किया है - आप कितना गुणित करते हैं उसे ? कितना मल्टीप्लाय करते हैं? जितना रस उसने लिया था, उससे दुगुना रस आप दूसरे को सुनाकर लेते हैं। पांच आदमियों तक पहुंचते-पहुंचते पता चलेगा कि उससे ज्यादा व्यभिचारी आदमी दुनिया में कभी पैदा नहीं हुआ था। पांच आदमियों के बीच पाप इतनी बड़ी यात्रा कर लेगा । इस मन के आंतरिक रस को देखना, समझना जरूरी है। तो विनय की साधना का पहला सूत्र तो है कि हमारे अहंकार के सहारे क्या हैं? हम किस सहारे से अविनीत बने रहते हैं? वे सहारे न गिरे तो विनय उत्पन्न नहीं होगा । निंदा में रस मालूम होता है, स्तुति में पीड़ा मालूम होती है । और इसलिए अगर आपको किसी मजबूरी में किसी की स्तुति करनी पड़ती है तो आप बहुत शीघ्र उसके सामने से हटकर, तत्काल कहीं जाकर उसकी निंदा करके बैंक बैलेंस बराबर कर लेते हैं। देर नहीं लगती। संतुलन पर ला देते हैं तराजू को बहुत शीघ्र । जब तक संतुलन न आ जाए तब तक मन को चैन नहीं पड़ता। लेकिन इससे उल्टा इतने आसानी से नहीं होता। जब आप किसी को गालियां देकर जाते हैं तो तत्काल आप संतुलन स्थापित नहीं करते कि कहीं जाकर उसके गुणों की भी चर्चा कर लें। मन की सहज इच्छा यह है कि दूसरे निन्दित हों। तो दूसरों के दोष तो हम हजारों मील से देख पाते हैं, अपना दोष इतने निकट रहकर भी नहीं देख पाते । मुल्ला नसरुद्दीन ने अपने गांव के मेयर को कई बार फोन किया, एक स्त्री बहुत अभद्र व्यवहार कर रही है मेरे साथ । अपनी खिड़की में इस भांति खड़ी होती है कि उसकी मुद्राएं आमंत्रण देती हैं, और कभी-कभी अर्धनग्न भी वह खिड़की से दिखाई पड़ती है। इसे रोका जाना चाहिए। यह समाज की नीति पर हमला है। कई बार फोन किया तो मेयर मुल्ला के घर आया । मुल्ला अपनी चौथी मंजिल पर ले गया, खिड़की के पास कहा— देखिए, वह सामने का मकान, उसी में वह स्त्री रहती है। मकान नदी के उस पार कोई आधा मील दूर था । उस मेयर ने कहा- वह स्त्री उस मकान में रहती है और उस मकान की खिड़कियों से आपको टेम्पटेशंस पैदा करती है? उधर से आपको उकसाती है? यहां से तो खिड़की भी ठीक से नहीं दिखाई पड़ रही, वह स्त्री कैसे दिखाई पड़ती होगी? मुल्ला ने कहा—ठहरो- -उसके देखने का ढंग - स्टूल पर चढ़ो, यह दूरबीन हाथ में लो, तब दिखाई पड़ेगी। लेकिन दोष उस स्त्री का ही है जो आधा मील दूर है ! और फिर एक दिन ऐसा भी हुआ कि मुल्ला ने अपने गांव के मनोचिकित्सक के दरवाजे को खटखटाया। भीतर गया, पूरा नग्न था । मनोचिकित्सक भी चौंका। नीचे से ऊपर तक देखा । मुल्ला ने कहा कि मैं यही पूछने आया हूं और वही भूल आप कर रहे हैं। मैं सड़कों पर से निकलता हूं तो लोग न मालूम पागल हो गए हैं, मुझे घूर घूरकर देखते हैं। ऐसी क्या मुझमें कमी है या ऐसी क्या भूल है कि लोग जिससे मुझे घूर घूरकर देखते हैं । मनोवैज्ञानिक खुद ही घूर घूरकर देख रहा था, क्योंकि मुल्ला निपट नग्न खड़ा था। मुल्ला ने कहा – यह पूरा गांव पागल हो गया है, Jain Education International 272 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001820
Book TitleMahavira Vani Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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