SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 285
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अतर-तप की दूसरी सीढ़ी है विनय। प्रायश्चित के बाद ही विनय के पैदा होने की सम्भावना है। क्योंकि जब तक मन देखता रहता है दूसरे के दोष, तब तक विनय पैदा नहीं हो सकती। जब तक मनुष्य सोचता है कि मुझे छोड़कर शेष सब गलत हैं, तब तक विनय पैदा नहीं हो सकती। विनय तो पैदा तभी हो सकती है जब अहंकार दूसरों के दोष देखकर अपने को भरना बंद कर दे। इसे हम ऐसा समझें कि अहंकार का भोजन है दूसरों के दोष देखना। वह अहंकार का भोजन है। इसलिए यह नहीं हो सकता है कि आप दूसरों के दोष देखते चले जाएं और अहंकार विसर्जित हो जाए। क्योंकि एक तरफ आप भोजन दिए चले जाते हैं और दूसरी तरफ अहंकार को विसर्जित करना चाहते हैं, यह न हो सकेगा। इसलिए महावीर ने बहत वैज्ञानिक क्रम रखा है-प्रायश्चित पहले, क्योंकि प्रायश्चित के साथ ही अहंकार को भोजन मिलना बंद हो जाता है। __वस्तुतः हम दूसरे के दोष देखते ही क्यों हैं? शायद इसे आपने कभी ठीक से न सोचा होगा कि हमें दूसरों के दोष देखने में इतना रस क्यों है? असल में दूसरों का दोष हम देखते ही इसलिए हैं कि दूसरों का दोष जितना दिखाई पड़े, हम उतने ही निर्दोष मालूम पड़ते हैं। ज्यादा दिखाई पड़े दूसरे का दोष तो हम ज्यादा निर्दोष मालूम पड़ते हैं। उस पृष्ठभूमि में, जहां दूसरे दोषी होते हैं हम अपने को निर्दोष देख पाते हैं। अगर दूसरे निर्दोष दिखाई पड़ें तो हम दोषी दिखाई पड़ने लगेंगे। तो हम दूसरों की शक्लें जितनी काली रंग सकते हैं, उतनी रंग देते हैं। उनकी काली रंगी शक्लों के बीच हम गौर वर्ण मालूम पड़ते हैं। अगर दूसरों के पास गौर वर्ण हो—सबके पास, तो, हम सहज ही काले दिखाई पड़ने लगेंगे। ___ दूसरे को दोषी देखने का जो आंतरिक रस है वह स्वयं को निर्दोष सिद्ध करने की असफल चेष्टा है; क्योंकि निर्दोष कोई अपने को सिद्ध नहीं कर सकता। निर्दोष कोई हो सकता है, सिद्ध नहीं कर सकता। सच तो यह है कि सिद्ध करने की कोशिश में ही निर्दोष न होना छिपा है। निर्दोषता-सिद्ध करने की कोशिश भी नहीं है। कोई यदि आपको किसी के संबंध में कोई पुण्य खबर दे तो मानने का मन नहीं होता। कोई आपसे कहे कि दूसरा व्यक्ति बहुत सज्जन, भला, साधु है तो मानने का मन नहीं होता। मन एक भीतरी रेजिस्टेंस, एक भीतरी प्रतिरोध करता है। मन भीतर से कहता-ऐसा हो नहीं सकता। इस भीतर की लहर पर थोड़ा ध्यान करें, अन्यथा विनय कभी उपलब्ध न होगी। ___ जब कोई किसी दूसरे की शुभ चर्चा करता है तो मन मानने को नहीं होता। भीतर एक लहर कंपित होती है और कहती है कि प्रमाण क्या है कि दूसरा सज्जन है, साधु है? वह प्रमाण की तलाश इसलिए है ताकि अप्रमाणित किया जा सके कि दूसरा साधु नहीं, सज्जन नहीं। 271 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001820
Book TitleMahavira Vani Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy