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महावीर-वाणी भाग : 1
फेंक देगा और कहेगा—यह मैं हूं ही नहीं, जिसको मैं थोप रहा हूं निरंतर। पश्चात्ताप सिर्फ स्याही के धब्बे को अलग कर देगा। और
अगर आप कुशल हुए तो स्याही के धब्बे को इस ढंग से बना देंगे कि वह तस्वीर का हिस्सा और श्रृंगार बन जाए। न कुशल हुए तो पोंछने की कोशिश करेंगे, इसमें थोड़ी-बहुत तस्वीर खराब भी हो सकती है।
अगर आपने रवींद्रनाथ की कभी हाथ से लिखी, हस्तलिखित प्रतिलिपियां, उनकी हस्तलिखित पांडुलिपियां देखी हैं तो आप बहुत चकित होंगे। रवीन्द्रनाथ से कहीं अगर कोई भूल अक्षर में हो जाए तो वे उसको ऐसे नहीं काटते थे, वे उसे काटकर वहां एक चित्र बना देते और कागज को सजा देते। तो उनकी पांडुलिपियां सजी पड़ी हैं। जहां उन्होंने काटा है, वहां सजा दिया है। अच्छा है, पांडुलिपि में करना बुरा नहीं है, आंख को सोहता है। लेकिन आदमी जिंदगी में भी यही करता है। वह पश्चात्ताप धब्बों को चित्र बनाने की कोशिश या धब्बों को पोंछ डालने की कोशिश है। पश्चात्ताप प्रायश्चित नहीं है, लेकिन हम सब तो पश्चात्ताप को ही प्रायश्चित समझते
पश्चात्ताप बहुत साधारण-सी घटना है, जो मन का नियम है। मन के नियम को थोड़ा समझ लें कि पश्चात्ताप पैदा सबको होता है। यह मन का सामान्य नियम है। प्रायश्चित साधना है। अगर महावीर प्रायश्चित का अर्थ पश्चात्ताप करते हों तो यह तो कोई बात ही न हुई।
यह तो सभी को होता है। ऐसा आदमी खोजना कठिन है जो पछताता न हो। अगर आप खोजकर ले आएं, तो वह आदमी ऐसे ही हो सकता है जैसा महावीर हो। बाकी आदमी मिलना मुश्किल है जो पछताता न हो। पश्चात्ताप तो जीवन का सहज क्रम है। हर आदमी पश्चात्ताप करता है। तो इसको साधना में गिनाने की क्या जरूरत है? पश्चात्ताप साधना नहीं, मन का नियम है। मन का यह नियम है कि मन एक अति से दूसरी अति पर डोल जाता है। तो मन के इस नियम में थोड़े गहरे प्रवेश कर जाएं तो पश्चात्ताप समझ में आ जाए। फिर प्रायश्चित की तरफ ध्यान उठ सकता है।
आपका किसी से प्रेम है तो आप उस आदमी में चुनाव करते हैं और वही-वही देखते हैं जो प्रेम को मजबूत करे-सिलेक्टिव । कोई आदमी किसी आदमी को पूरा नहीं देखता। देख ले तो जिंदगी बदल जाए, उसकी खुद की भी बदल जाए। हम सब चुनाव
जिसे मैं प्रेम करता हं उसमें मैं वे वे हिस्से देखता हूं जो मेरे प्रेम को मजबत करते हैं और कहते हैं कि मैंने चनाव ठीक किया है। आदमी प्रेम के योग्य है। प्रेम किया ही जाता ऐसे आदमी से, ऐसा आदमी है। लेकिन यह पूरा आदमी नहीं है। यह मन अपने को चुनाव कर रहा है। जैसे मैं किसी कमरे में जाऊं और सफेद रंगों को चुन लूं और काले रंगों को छोड़ दूं। आज नहीं कल मैं सफेद रंगों से ऊब जाऊंगा क्योंकि मन जिस चीज से भी परिचित होता जाता है, ऊब जाता है। आज नहीं कल मैं ऊब जाऊंगा इस सौंदर्य की सिलेक्टिव, एक चुनाव की गयी प्रतिमा से। और जैसे मैं ऊबने लगूंगा वैसे ही वह जो असुंदर मैंने छोड़ दिया था, दिखाई पड़ना शुरू हो जाएगा। वह तभी तक नहीं दिखता था, वह तो है ही।
सुन्दरतम व्यक्ति में भी असुंदर हिस्से हैं। असुंदरतम व्यक्ति में भी सौंदर्य छिपा है। जीवन बनता ही है विरोध से. जीवन की सारी व्यवस्था ही विरोध पर खड़ी होती है। काले बादलों में ही बिजली नहीं छिपी होती, हर बिजली की चमक के पीछे काला बादल भी होता है। और हर अंधेरी रात के बाद ही सुबह पैदा नहीं होती, हर सुबह के बाद काली रात आ जाती है। हर दुख में खुशी ही नहीं छिपी है, हर खुशी के भीतर से दुख का अंकुर भी निकलेगा। जीवन ऐसे ही बहता है जैसे नदी दो किनारों के बीच बहती है। और एक किनारे के साथ नहीं बह सकती। भला दुसरा किनारा आपको न दिखाई पडता हो. या आप न देखना चाहते हों, लेकिन जब इस किनारे से ऊब जाएंगे तो दूसरा किनारा ही आपका डेरा बनेगा।
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