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महावीर-वाणी
भाग : 1
हैं और पढ़ना शुरू कर देते हैं। आपको खयाल नहीं, आपका यंत्र-मानव कहता है-कैसे अपने में संलीन बैठे हो? अखबार पढ़ो ! यह हाथ बिलकुल नींद में जाता है, अखबार उठाता है, ये आंखें नींद में पढ़ना शुरू कर देती हैं। यह मन नींद में ग्रहण करना शुरू कर देता है। कचरा आप डाल रहे हैं। न डालते तो कुछ हर्ज न था, फायदा हो सकता था। क्योंकि कचरे के डालने में भी शक्ति व्यय होगी। कचरे को सम्भालने में भी शक्ति व्यय होगी। कचरे को भरने में भी मन का रिक्त स्थान भरेगा और व्यर्थ भर जाएगा। यह वैसे ही है जैसे कोई आदमी सड़क पर कचरा उठाकर घर में ला रहा हो। वह कहे-कुछ तो करेंगे, बिना किए कैसे रह सकते हैं। पर घर में लाए गए कचरे को बाहर फेंक देने में बहुत कठिनाई नहीं है, मन में लाए गए कचरे को फिर बाहर फेंकने में बहुत कठिनाई है।
इसलिए पहला ध्यान... तो पहला पहरा यही रखना पड़ेगा कि मन जब बाहर जाए तो आप सचेत हो जाएं, और होशपूर्वक बाहर जाएं। अगर अखबार पढना है तो जानकर कि मेरा यंत्र अखबार पढना चाहता है। मैं अखबार पढता हं. अब मैं अखबार पढंगा। अखबार पढ़ें होशपूर्वक। तब आप पाएंगे कि अखबार पढ़ने में कोई रस नहीं आ रहा है, क्योंकि रस सिर्फ बेहोशी में आ सकता है। यह बहुत मजा है कि व्यर्थ की चीज में रस सिर्फ बेहोशी में आता है, होश में नहीं आता। आप किसी भी व्यर्थ की चीज में होशपूर्वक रस नहीं ले सकते हैं। बेहोशी में ले सकते हैं। इसलिए जिन लोगों को रस लेने का पागलपन सवार हो जाता है वे नशा करने लगते हैं क्योंकि नशे में रस ज्यादा लिया जा सकता है। नहीं तो रस नहीं लिया जा सकता।
होशपूर्वक, यंत्र-मानव को बाहर जाने की जो चेष्टा है उसे होशपूर्वक देखते रहें और होशपूर्वक ही काम करें। अगर यंत्र-मानव कहता है कि क्या अकेले बैठे हैं, चलें मित्र के घर; तो उससे कहें कि ठीक है, चलते हैं—होशपूर्वक चलते हैं। तेरी मांग है, हम देखते-देखते हुए चलते हैं। सम्भावना यह है कि आप बीच रास्ते से घर वापस लौट आएं। क्योंकि कहें कि क्या-क्योंकि बड़ा मजा यह है उस मित्र के पास रोज बैठकर बोर होते हैं और कुछ नहीं होता है। वह वही बातें फिर से कहता है कि मौसम कैसा है, कि स्वास्थ्य कैसा है! दो तीन मिनट में बातें चुक जाती हैं। फिर वह वे ही कहानियां सुनाता है जो बहुत बार सुना चुका। फिर वह वे ही घटनाएं बताता है जो बहुत बार बता चुका है, और आप सिर्फ बोर होते हैं। रोज यही खयाल लेकर लौटते हैं कि इस आदमी ने बुरी तरह उबा दिया। लेकिन कल रोबोट कहता है कि मित्र के घर चलो और आपको खयाल नहीं आता कि आप फिर बोर होने चले। अपनी बोर्डम खुद ही खोजते हैं। अगर आप होशपूर्वक जाएंगे तो रास्ते में आपको स्मरण आ जाएगा कि आप कहां जा रहे हैं, क्यों जा रहे हैं, क्या मिलेगा? पैर शिथिल पड़ जाएंगे। सम्भावना यह है कि आप वापस लौट आएं।
इस तरह आपके यंत्र-चित्त की बाहर जाने की प्रत्येक क्रिया पर जागरूक पहरा रखें। एक-एक क्रिया छूटने लगेगी। फिर जो बहुत नेसेसरी हैं, जीवन के लिए अनिवार्य हैं, उतनी ही क्रियाएं रह जाएंगी। गैर अनिवार्य क्रियाएं छूट जाएंगी और तब आप पाएंगे कि शरीर संलीन होने लगा। आप बैठेंगे ऐसे जैसे अपने में ठहरे हुए हैं। जैसे कोई झील शांत है, जिसमें लहर भी नहीं उठती। एक रिपेल भी नहीं जैसे आकाश खाली, एक बदली भी नहीं भटकती। जैसे कभी देखा हो तो आकाश में किसी चील को पंखों को रोककर उड़ते हुए–संलीन। पंख भी नहीं हिलता। चील सिर्फ अपने में ठहरी है, तिरती है, तैरती भी नहीं, तिरती है। जैसे देखा हो किसी बत्तख को कभी किसी झील में, पंख भी न मारते हुए-ठहरे हुए। ऐसा सब आपके शरीर में भी ठहर जाएगा, मन में भी। क्योंकि जैसे शरीर बाहर जाता है ऐसे ही मन भी बाहर जाता है। अगर शरीर बाहर नहीं जा सकता तो मन और ज्यादा बाहर जाता है। क्योंकि पूर्ति करनी पड़ती है। अगर आप मित्र से नहीं मिल सकते तो फिर आंख बंद करके मित्र से मिलने लगते हैं, दिवा-स्वप्न देखने लगते हैं कि मित्र मिल गया, बातचीत हो रही है। तो फिर धीरे-धीरे मन की भी बाहर जाने की आंतरिक कोशिशें हैं, उन पर
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