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मंत्र : दिव्य-लोक की कुंजी
आप कमरे के भीतर आएं तो वह यंत्र आपको अपनी तरफ खींचेगा। आपका मन होगा उसके पास जाएं - यंत्र के, आदमी वहां नहीं है। और अगर माइखालोवा किसी वस्तु को दूर हटा रही थी और शक्ति संग्रहीत की है, तो आप इस कमरे में आएंगे और तत्काल बाहर भागने का मन होगा।
क्या भाव शक्ति में इस भांति प्रविष्ट हो जाते हैं?
मंत्र की यही मूल आधारशिला है। शब्द में, विचार में, तरंग में भाव संग्रहीत और समाविष्ट हो जाते हैं। जब कोई व्यक्ति कहता है— नमो अरिहंताणं, मैं उन सबको जिन्होंने जीता और जाना अपने को, उनकी शरण में छोड़ता हूं, तब उसका अहंकार तत्काल विगलित होता है । और जिन-जिन लोगों ने इस जगत में अरिहंतों की शरण में अपने को छोड़ा है, उस महाधारा में उसकी शक्ति सम्मिलित होती है। उस गंगा में वह भी एक हिस्सा हो जाता है। और इस चारों तरफ आकाश में, इस अरिहंत के भाव के आसपास जो ग्रूज़ निर्मित हुए हैं, जो स्पेस में, आकाश में जो तरंगें संग्रहीत हुई हैं, उन संग्रहीत तरंगों में आपकी तरंग भी चोट करती है। आपके चारों तरफ एक वर्षा हो जाती है जो आपको दिखाई नहीं पड़ती। आपके चारों ओर एक और दिव्यता का, भगवत्ता का लोक निर्मित हो जाता है। इस लोक के साथ, इस भाव लोक के साथ आप दूसरे तरह के व्यक्ति हो जाते हैं ।
महामंत्र स्वयं के आसपास के आकाश को, स्वयं के आसपास के आभामंडल को बदलने की कीमिया है । और अगर कोई व्यक्ति दिन-रात जब भी उसे स्मरण मिले, तभी नमोकार में डूबता रहे, तो वह व्यक्ति दूसरा ही व्यक्ति हो जाएगा। वह वही व्यक्ति नहीं रह सकता, जो वह था ।
पांच नमस्कार हैं। अरिहंत को नमस्कार । अरिहंत का अर्थ होता है : जिसके सारे शत्रु विनष्ट हो गये; जिसके भीतर अब कुछ ऐसा नहीं रहा जिससे उसे लड़ना पड़ेगा । लड़ाई समाप्त हो गयी। भीतर अब क्रोध नहीं है जिससे लड़ना पड़े, भीतर अब काम नहीं है, जिससे लड़ना पड़े, अज्ञान नहीं है। वे सब समाप्त हो गये जिनसे लड़ाई थी।
अब एक 'नान-कानफ्लिक्ट', एक निर्द्वद्व अस्तित्व शुरू हुआ। अरिहंत शिखर है, जिसके आगे यात्रा नहीं है। अरिहंत मंजिल है, जिसके आगे फिर कोई यात्रा नहीं है। कुछ करने को न बचा जहां, कुछ पाने को न बचा जहां, कुछ छोड़ने को भी न बचा जहां - जहां सब समाप्त हो गया जहां शुद्ध अस्तित्व रह गया, 'प्योर एग्जिस्टेंस' जहां रह गया, जहां ब्रह्म मात्र रह गया, जहां होना मात्र रह गया, उसे कहते हैं अरिहंत ।
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अदभुत है यह बात भी कि इस महामंत्र में किसी व्यक्ति का नाम नहीं है महावीर का नहीं, पार्श्वनाथ का नहीं, किसी का नाम नहीं है। जैन परंपरा का भी कोई नाम नहीं। क्योंकि जैन परंपरा यह स्वीकार करती है कि अरिहंत जैन परंपरा में ही नहीं हुए हैं और सब परंपराओं में भी हुए हैं। इसलिए अरिहंतों को नमस्कार है • किसी अरिहंत को नहीं है। यह नमस्कार बड़ा विराट है। संभवतः विश्व के किसी धर्म ने ऐसा महामंत्र जैसे खयाल ही नहीं है, शक्ति पर खयाल है। रूप पर ध्यान ही नहीं है, वह जो अरूप सत्ता है, उसी का खयाल है को नमस्कार ।
इतना सर्वांगीण, इतना सर्वस्पर्शी -
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विकसित नहीं किया है । व्यक्तित्व पर
अरिहंतों
अब महावीर को जो प्रेम करता है, कहना चाहिए महावीर को नमस्कार; बुद्ध को जो प्रेम करता है, कहना चाहिए बुद्ध को नमस्कार; राम को जो प्रेम करता है, कहना चाहिए राम को नमस्कार — पर यह मंत्र बहुत अनूठा है। यह बेजोड़ है। और किसी परंपरा में ऐसा मंत्र नहीं है, जो सिर्फ इतना कहता है। अरिहंतों को नमस्कार सबको नमस्कार जिनकी मंजिल आ गयी है। असल में मंजिल को नमस्कार। वे जो पहुंच गये, उनको नमस्कार ।
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