________________
महावीर-वाणी
भाग : 1
लगे रहने की लम्बी धारा चली। और आज करीब-करीब स्थिति ऐसी आ गयी है कि बाह्य तप ही पूरा नहीं हो पाता तो आन्तरिक तप तक जाने का सवाल नहीं उठता। बाह्य तप ही जीवन को डुबा लेता है। और बाह्य तप कभी पूरा नहीं होगा जब तक कि आन्तरिक तप पूरा न हो। इसे भी ध्यान में ले लें। ___ अन्तर और बाह्य एक ही चीज है। इसलिए कोई सोचता हो कि बाह्य तप पहले पूरा हो जाए तब मैं अन्तर तप में प्रवेश करूंगा, तो बाह्य तप कभी पूरा नहीं होगा। क्योंकि बाह्य तप स्वयं आधा हिस्सा है, वह पूरा नहीं हो सकता। जैन साधना जहां भटक गयी वह यही जगह है, बाह्य तप पहले पूरा हो जाए तो फिर आन्तरिक तप में उतरेंगे। बाह्य तप कभी पूरा नहीं हो सकता, क्योंकि बाह्य जो है वह अधूरा ही है। वह तो पूरा तभी होगा जब आन्तरिक तप भी पूरा हो। इसका यह अर्थ हुआ कि अगर ये दोनों तप साथ-साथ चलें तो ही पूरा हो पाते हैं, अन्यथा पूरा नहीं हो पाते हैं। लेकिन विभाजन ने हमें ऐसा समझा दिया कि पहले हम बाहर को तो पूरा कर लें, हम बाहर को तो साध लें, फिर हम भीतर की यात्रा करेंगे। अभी जब बाहर का ही नहीं सध रहा है तो भी हो सकती है। ध्यान रहे, तप एक ही है। बाह्य और भीतर सिर्फ काम चलाऊ विभाजन हैं।
अगर कोई अपने पैरों को स्वस्थ करना चाहे और सोचे कि पहले पैर स्वस्थ हो जाएं, फिर सिर स्वस्थ कर लेंगे, तो वह गलती में है। शरीर एक है, और शरीर का स्वास्थ्य पूरा होता है। अभी तक वैज्ञानिक सोचते थे कि शरीर के अंग बीमार पड़ते हैं, लोकल होती है बीमारी—हाथ बीमार होता है, पैर बीमार होता है। लेकिन अब धारणा बदलती चली जा रही है। अब वैज्ञानिक कहते हैं-जब एक अंग बीमार होता है तो वह इसलिए बीमार होता है कि पूरा व्यक्ति बीमार हो गया होता है। हां, एक अंग से बीमारी प्रगट होती है लेकिन वह एक अंग की नहीं होती। मनुष्य का पूरा व्यक्तित्व ही बीमार हो जाता है। यद्यपि बीमारी उस अंग से प्रगट होती है जो सर्वाधिक कमजोर है। लेकिन व्यक्तित्व पूरा बीमार हो जाता है।
इसलिए हैपोक्रेटीज ने, जिसने कि पश्चिम में चिकित्सा को जन्म दिया, उसने कहा था-ट्रीट दि डिसीज, बीमारी का इलाज करो। लेकिन अभी पश्चिम के अनेक मेडिकल कालेजिस में वह तख्ती हटा दी गयी है और वहां लिखा हुआ है—ट्रीट दि पेशेंट। बीमारी का इलाज मत करो, बीमार का इलाज करो, क्योंकि बीमारी लोकलाइज्ड होती है, बीमार तो फैला हुआ होता है। असली सवाल नहीं है बीमारी, असली सवाल है बीमार, पूरा व्यक्तित्व । ___ अन्तर और बाह्य पूरे व्यक्तित्व के हिस्से हैं। इन्हें साइमलटेनियसली, युगपत प्रारम्भ करना पड़ेगा। विवेचन जब हम करेंगे तो विवेचन हमेशा वन डायमेंशनल होता है। मैं पहले एक अंग की बात करूंगा, फिर दूसरे की, फिर तीसरे की, फिर चौथे की। स्वभावतः चारों अंगों की बात एक साथ कैसे की जा सकती है। भाषा वन डायमेंशनल है। एक रेखा में मुझे बात करनी पड़ेगी। पहले मैं आपके सिर की बात करूंगा, फिर आपके हृदय की बात करूंगा, फिर आपके पैर की बात करूंगा। तीनों की बात एक साथ नहीं कर सकता हूं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि तीनों एक साथ नहीं हैं। वह तीनों एक साथ हैं - आपका सिर, आपका हृदय, आपके पैर; वह सब युगपत, एक साथ हैं; अलग-अलग नहीं हैं। चर्चा करने में बांट लेना पड़ता है लेकिन अस्तित्व में वे इकट्ठे हैं।
यह जो चर्चा मैं करूंगा बारह हिस्सों की-छह बाह्य और छह आन्तरिक, चर्चा के लिए क्रम होगा-एक, दो, तीन, चार; लेकिन
ना है, उनके लिए क्रम नहीं होगा। एक साथ उन्हें साधना होगा, तभी पूर्णता उपलब्ध होती है, अन्यथा पूर्णता उपलब्ध नहीं होती। भाषा से बड़ी भूलें पैदा होती हैं, क्योंकि भाषा के पास एक साथ बोलने का कोई उपाय नहीं है। __ मैं यहां हूं; अगर मैं बाहर जाकर ब्यौरा दूं कि मेरे सामने की पंक्ति में कितने लोग बैठे थे तो मैं पहले, पहले का नाम लूंगा, फिर
170
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org