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महावीर ने तप को दो रूपों में विभाजित किया है। इसलिए नहीं कि तप दो रूपों में विभाजित हो सकता है, बल्कि इसलिए कि हम उसे बिना विभाजित किए नहीं समझ सकते हैं। हम जहां खड़े हैं, हमारी समस्त यात्रा वहीं से प्रारम्भ होगी । और हम अपने बाहर खड़े हैं। हम वहां खड़े हैं जहां हमें नहीं होना चाहिए; हम वहां नहीं खड़े हैं जहां हमें होना चाहिए। हम अपने को ही छोड़कर, अपने से ही च्युत होकर, अपने से ही दूर खड़े हैं। हम दूसरों से अजनबी हैं — ऐसा नहीं, हम अपने से अजनबी हैं— स्ट्रेंजर्स टु अवरसेल्व्ज । दूसरों का तो शायद हमें थोड़ा बहुत पता भी हो, अपना उतना भी पता नहीं । तप तो विभाजित नहीं हो सकता । लेकिन हम विभाजित मनुष्य हैं। हम अपने से ही विभाजित हो गए हैं, इसलिए हमारी समझ के बाहर होगा अविभाज्य तप । महावीर उसे दो हिस्सों में बांटते हैं, हमारे कारण । इस बात को ठीक से पहले समझ लें। हमारे कारण ही दो हिस्सों में बांटते हैं, अन्यथा महावीर जैसी चेतना को बाहर और भीतर का कोई अन्तर नहीं रह जाता। जहां तक अन्तर है वहां तक तो महावीर जैसी चेतना का जन्म नहीं होता। जहां भेद है, जहां फासले हैं, जहां खंड हैं, वहां तक तो महावीर की अखंड चेतना जन्मती नहीं। महावीर तो वहां हैं जहां सब अखंड हो जाता है। जहां बाहर भीतर का ही एक छोर हो जाता है और जहां भीतर भी बाहर का ही एक छोर हो जाता है। जहां भीतर और बाहर एक ही लहर के दो अंग हो जाते हैं; जहां भीतर और बाहर दो वस्तुएं नहीं, किसी एक ही वस्तु के दो पहलू हो जाते हैं, इसलिए यह विभाजन हमारे लिए हैं ।
महावीर ने बाह्य तप और अन्तर तप, दो हिस्से किए हैं। उचित होता, ठीक होता कि अन्तर तप को महावीर पहले रखते, क्योंकि अन्तर ही पहले है। वह जो आन्तरिक है, वही प्राथमिक है। लेकिन महावीर ने अन्तर तप को पहले नहीं रखा है, पहले रखा है बाह्य तप को। क्योंकि महावीर दो ढंग से बोल सकते हैं, और इस पृथ्वी पर दो ढंग से बोलनेवाले लोग हुए हैं। एक वे लोग जो वहां से बोलते हैं जहां वे खड़े हैं। एक वे लोग जो वहां से बोलते हैं जहां सुननेवाला खड़ा है। महावीर की करुणा उन्हें कहती है कि वे वहीं से बोलें जहां सुननेवाला खड़ा है। महावीर के लिए आन्तरिक प्रथम हैं, लेकिन सुननेवाले के लिए आन्तरिक द्वितीय है, बाह्य
प्रथम L
तो महावीर जब बाह्य तप को पहला रखते हैं तो केवल इस कारण कि हम बाहर हैं। इससे सुविधा तो होती है समझने में, लेकिन महावीर ने चूंकि बाह्य तप को पहले
आचरण करने में असुविधा भी हो जाती है। सभी सुविधाओं के साथ जुड़ी हुई असुविधाएं हैं। रखा है, इसलिए महावीर के अनुयायियों ने बाह्य तप को प्राथमिक समझा। वहां भूल हुई है।
और तब बाह्य तप को करने में ही
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