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महावीर-वाणी भाग : 1
सकता, किसी के लिए दुख का कोई भी खयाल नहीं सोच सकता। वह सोच ही नहीं सकता दुख का कोई खयाल कि किसी को कोई दुख हो। कहीं भी, नरक में भी। लेकिन जो तथाकथित तपस्वी है वह बहुत रस लेता है। अगर आप शास्त्रों को पढ़ें-सारी दुनिया के धर्मों के शास्त्रों को, तो एक बहुत अदभुत घटना आपको दिखाई पड़ेगी। तपस्वियों ने जो-जो लिखा है-तथाकथित तपस्वियों ने—उसमें वे नरकों की जो-जो विवेचना और चित्रण करते हैं, वह बहुत परवर्टेड इमेजिनेशन मालूम पड़ती है, बहुत विकृत हो गयी कल्पना मालूम पड़ती है। ऐसा वे सोच पाते हैं, ऐसा वे कल्पना कर पाते हैं-यह उनके बाबत बड़ी खबर लाती है।
दूसरी एक बात दिखाई पड़ेगी कि तपस्वी, आप जो-जो सुख भोगते हैं उनकी बड़ी निन्दा करते हैं और निन्दा में बड़ा रस लेते हैं। वह रस बहुत प्रगट है। यह बहुत मजे की बात है कि वात्स्यायन ने अपने काम-सूत्रों में स्त्री के अंगों का ऐसा सुन्दर चित्रण नहीं किया है-इतना रसमग्ध - जितना तपस्वियों ने स्त्री के अंगों की निन्दा करने के लिए अपने शास्त्रों में किया है। वात्स्यायन के पास इतना रस हो भी नहीं सकता था। क्योंकि उतना रस पैदा करने के लिए विपरीत जाना जरूरी है। इसलिए मजे की बात है कि भोगियों के आसपास कभी नग्न अप्सराएं आकर नहीं नाचतीं, वे सिर्फ तपस्वियों के आसपास आकर नाचती हैं। तपस्वी सोचते हैं, उनका तप भ्रष्ट करने के लिए वे आ रही हैं। लेकिन जिसको भी मनोविज्ञान का थोड़ा-सा बोध है, वह जानता है-कहीं इस जगत में अप्सराओं का कोई इंतजाम नहीं है तपस्वियों को भ्रष्ट करने के लिए। अस्तित्व तपस्वियों को भ्रष्ट क्यों करना चाहेगा? कोई कारण नहीं है। अगर परमात्मा है, तो परमात्मा भी तपस्वियों को भ्रष्ट करने में क्यों रस लेगा? और ये अप्सराएं शाश्वत रूप से एक ही धंधा करेंगी, तपस्वियों को भ्रष्ट करने का? इनके लिए और कोई काम, इनके जीवन का अपना कोई रस नहीं है?
नहीं, मनस्विद कहते हैं कि तपस्वी इतना लड़ता है जिस रस से, वही रस प्रगाढ़ होकर प्रगट होना शुरू हो जाता है। और तपस्वी काम से लड़ रहा है तो आसपास कामवासना रूप लेकर खड़ी हो जाती है, वह उसे घेर लेती है। वह जिससे लड़ रहा है उसी को प्रोजेक्ट, उसी का प्रक्षेपण कर लेता है। वे अप्सराएं किसी स्वर्ग से नहीं उतरतीं, वे तपस्वी के संघर्षरत मन से उतरती हैं। वे अप्सराएं उसके मन में जो छिपा है, उसे बाहर प्रगट करती हैं। वह जो चाहता है और जिससे बच रहा है, वे अप्सराएं उसका ही साकार रूप हैं। वह जो मांगता भी है, और जिससे लड़ता भी है, वह जिसे बुलाता भी है और जिसे हटाता भी है, वे अप विकृत चित्त की तृप्ति हैं। वे उसे भ्रष्ट करने कहीं और से नहीं आती हैं, उसके ही दमित चित्त से पैदा होती हैं।
तप विकृत हो तो दमन होता है। और दमन आदमी को रुग्ण करता है, स्वस्थ नहीं। इसलिए मैं कहता हूं-महावीर के तप में दमन का कोई भी कारण नहीं है। और अगर महावीर ने कहीं दमन जैसे शब्दों का प्रयोग भी किया है तो मैं आपको कह दं, पच्चीस सौ साल पहले दमन का अर्थ बहुत दूसरा था। वह अब नहीं है। दम का अर्थ था शान्त हो जाना। दम का अर्थ दबा देना नहीं था, महावीर के वक्त में। दम का अर्थ था शान्त हो जाना। शान्त कर देना भी नहीं, शान्त हो जाना। भाषा रोज बदलती रहती है, शब्दों के अर्थ रोज बदलते रहते हैं। इसलिए अगर कहीं महावीर की वाणी में दमन शब्द मिल भी जाए तो आप ध्यान रखना, उसका अर्थ सप्रेशन नहीं है। उसका अर्थ दबाना नहीं है। उसका अर्थ शान्त हो जाना है। जिस चीज से आपको दुख उपलब्ध हुआ है, उसके विपरीत चले जाने से दमन पैदा होता है। जिस चीज से आपको दुख उपलब्ध हुआ है, उसकी समझ में प्रतिष्ठित हो जाने से शान्ति उपलब्ध होती है। इस फर्क को ठीक से समझ लें। ___ कामवासना ने मुझे दुख दिया, तो मैं कामवासना के विपरीत चला जाऊं और लड़ने लगू कामवासना से, तो दमन होगा। कामवासना ने मुझे दुख दिया, यह बात – मेरी समझ, मेरी प्रज्ञा में इस भांति प्रविष्ट हो जाए कि कामवासना तो शान्त हो जाए और कामवासना के विपरीत मेरे मन में कुछ भी न उठे। क्योंकि जब तक विपरीत उठता है तब तक शान्त नहीं हुआ। विपरीत उठता
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