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________________ महावीर-वाणी भाग : 1 है। यह भी सजावट है। सजावट दिखाई नहीं पड़ती, यह भी सजावट है। आपको पता है, अगर आप कभी कुम्भ गए हैं, तो एक बात देखकर बहुत चकित होंगे कि जो साधु राख लपेटे बैठे रहते हैं, वे भी एक छोटा आईना अपने डिब्बे में रखते हैं और सुबह स्नान करने के बाद जब वह राख लपेटते हैं, तो आइने में देखते जाते हैं। आदमी अदभुत है। राख ही लपेट रहे हैं तो आइने का क्या प्रयोजन रह गया। लेकिन राख लपेटना भी सजावट है, श्रृंगार है। शरीर को कुरूप करनेवाला भी आइने में देखेगा कि हो गया ठीक से कि नहीं? उल्टा दिखाई पड़ता है, उल्टा है नहीं। तपस्वी शरीर का दुश्मन नहीं हो जाता, जैसा कि भोगी शरीर का लोलुप मित्र है। तपस्वी भोगी के विपरीत नहीं हो जाता क्योंकि विपरीत से भी भोग संयक्त हो जाता है। विपरीत से भी भोग संयक्त हो जाता है। शरीर को सुंदर बनानेवालों के लिए ही आइने की जरूरत नहीं होती, शरीर को कुरूप बनानेवाले के लिए भी आइने की जरूरत पड़ जाती है। शरीर को सुंदर बनानेवाला ही दूसरों की दृष्टि पर निर्भर नहीं रहता है कि कोई मुझे देखे, शरीर को कुरूप बनानेवाला भी दूसरों की दृष्टि पर ही निर्भर रहता है कि कोई मुझे देखे। सुंदर वस्त्र पहनकर रास्ते पर निकलनेवाला ही देखनेवाले की प्रतीक्षा नहीं करता है, नग्न होकर निकलनेवाला भी उतनी ही प्रतीक्षा करता है। विपरीत भी कहीं एक ही रोग की शाखाएं हो सकते हैं, यह समझ लेना जरूरी है। आसान है लेकिन यही – शरीर के भोग से शरीर के तप पर जाना आसान है। शरीर को सुख देने की आकांक्षा का शरीर को दुख देने की आकांक्षा में बदल जाना बड़ा सुगम और सरल है। एक और बात ध्यान में ले लेनी जरूरी है। जिस माध्यम से हम सुख चाहते हैं, अगर वह माध्यम हमें सुख न दे पाए तो हम उसके दुश्मन हो जाते हैं। अगर आप कलम से लिख रहे हैं - सभी को अनुभव होगा जो लिखते-पढ़ते हैं - अगर कलम ठीक न चले तो आप कलम को गाली देकर जमीन पर पटककर तोड़ भी सकते हैं। अब कलम को गाली देना एकदम नासमझी है। इससे ज्यादा नासमझी और क्या होगी! और कलम को तोड़ देने से कलम का कुछ भी नहीं टूटता, आपका ही कुछ टूटता है। कलम का कोई नुकसान नहीं होता, आपका ही नुकसान होता है। लेकिन जूतों को गाली देकर पटक देनेवाले लोग हैं, दरवाजों को गाली देकर खोल देनेवाले लोग हैं। ये ही लोग तपस्वी बन जाते हैं। शरीर सुख नहीं दे पाया, यह अनुभव शरीर को तोड़ने की दिक्षा में ले जाता है - तो शरीर को सताओ। लेकिन शरीर को सताने के पीछे वही फ्रस्ट्रेशन, वही विषाद काम कर रहा है कि शरीर से सख चाहा था और नहीं मिला तो अब जिस माध्यम से सुख चाहा था उसको दुख देकर बताएंगे। लेकिन आप बदले नहीं, अभी भी। अभी भी आपकी दष्टि शरीर पर लगी है, चाहे सुख चाहा हो, और चाहे अब दुख देना चाहते हों, पर आपके चित्त की जो दिशा है वह अभी भी शरीर के ही आसपास वर्तुल बनाकर घूमती है। आपकी चेतना अभी भी शरीर केंद्रित है। अभी भी शरीर भूलता नहीं। अभी भी शरीर अपनी जगह खड़ा है और आप वही के वही हैं। आपके और शरीर के बीच का संबंध वही का वही है। ध्यान रखें, भोगी और तथाकथित तपस्वी के बीच शरीर के संबंध में कोई अन्तर नहीं पड़ता। शरीर के साथ संबंध वही रहता है। क्या आप सोच सकते हैं, अगर हम भोगी से कहें कि तुम्हारा शरीर छीन लिया जाए तो तुम्हें कठिनाई होगी? भोगी कहेगा - कठिनाई! मैं बर्बाद हो जाऊंगा, क्योंकि शरीर ही तो मेरे भोग का माध्यम है। अगर हम तपस्वी से कहें कि तुम्हारा शरीर छीन लिया जाए, तुम्हें कोई कठिनाई होगी? वह भी कहेगा- मैं मुश्किल में पड़ जाऊंगा। क्योंकि मेरी तपश्चर्या का साधन तो शरीर ही है। कर तो मैं शरीर के साथ ही कुछ रहा हूं। अगर शरीर ही न रहा तो तप कैसे होगा? अगर शरीर न रहा तो भोग कैसे होगा? इसलिए मैं कहता हूं - दोनों की दृष्टि शरीर पर है और दोनों शरीर के माध्यम से जी रहे हैं। जो तप शरीर के माध्यम से जी रहा है वह 134 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001820
Book TitleMahavira Vani Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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