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संयम की विधायक दृष्टि
न कुछ बाहर रह जाता है, न कुछ भीतर। एक ही रह जाता है जो बाहर है और भीतर है। जिस दिन यह घड़ी घटती है कि जो बाहर है वही भीतर है, जो भीतर है वही बाहर है; उस दिन आप संयम को, उस इक्विलिब्रियम को उपलब्ध हो गए, जहां सब सम हो जाता है; जहां सब ठहर जाता है; जहां सब मौन होता है। जहां कोई हलन-चलन नहीं होती है; जहां कोई भाग-दौड़ नहीं होती; जहां कोई कंपन नहीं होता।
किसी भी इंद्रिय से शुरू करें और भीतर की तरफ बढ़ते चले जाएं, फौरन ही वह इंद्रिय आपको भीतर से भी जोड़ने का कारण बन जाएगी। आंख से देखना शुरू करें, फिर आंख बंद कर लें। बाहर के दृश्य देखें, देखते रहें, लड़ें मत। और धीरे-धीरे-धीरे उसके प्रति जागें जो बाहर से आया हुआ दृश्य न हो। बहुत शीघ्र आपको बाहर के दो दृश्यों के बीच में, भीतर के बीच में, भीतर के दृश्यों की झलकें आनी शुरू हो जाएंगी। कभी ऐसा प्रकाश भीतर भर जाएगा जो बाहर सूर्य भी देने में असमर्थ है। कभी भीतर ऐसे रंग फैल जाएंगे जो कि इंद्रधनुषों में नहीं हैं। कभी भीतर ऐसे फूल खिल जाएंगे जो पृथ्वी पर कभी भी नहीं खिले हैं। और जब आप पहचानने लगेंगे कि यह बाहर का फूल नहीं है, यह बाहर का रंग नहीं है, यह बाहर का प्रकाश नहीं है; तब आपको पहली दफे तुलना मिलेगी कि बाहर जो प्रकाश है, अब उसको प्रकाश कहें या भीतर की तुलना में उसे भी अंधेरा कहें। बाहर जो फूल खिलते हैं, अब उन्हें फूल कहें या भीतर की तुलना में केवल फूलों की प्रतिध्वनियां कहें - रिजोनेसिस, फीके स्वर। अब बाहर जो इंद्रधनुषों से रंग छा जाते हैं, वे रंग हैं? बहत कठिन होगा, क्योंकि जब भीतर कोई रंग को जानता है तो रंग में एक लिविंग क्वालिटी, एक जीवंत गुण आ जाता है जो बाहर के रंगों में नहीं है। बाहर के रंगों में कितनी ही चमक हो, बाहर के रंग जड़ हैं। भीतर जब रंग दिखाई पड़ता है, तो रंग पहली दफे जीवंत हो जाता है। ___ अब हम सोच भी नहीं सकते कि रंग के जीवंत होने का क्या अर्थ होता है। रंग और जीवित! जानें तो ही खयाल में आ सकता है कि रंग जीवित हो सकता है; रंग प्राणवान हो सकता है। और जिस दिन भीतर का रंग प्राणवान होकर दिखाई पड़ने लगता है, बाहर के रंगों का आकर्षण खो जाता है। छोड़ना नहीं पड़ता, बस खो जाता है। __ प्रत्येक इंद्रिय भीतर ले जाने का द्वार बन सकती है। स्पर्श किया है बहुत, स्पर्श का अनुभव है बहुत। बैठ जाएं, आंख बंद कर लें, स्पर्श पर ध्यान करें। सुंदर शरीर छुए होंगे, सुंदर वस्तुएं छुई होंगी, फूल छुए होंगे। कभी सुबह घास पर जम गयी ओस को छुआ होगा। कभी सर्द सूबह में आग के पास बैठकर उष्णता का स्पर्श लिया होगा, कभी किसी चांद-तारों की दुनिया में लेटकर उनकी चांदनी को छुआ होगा। वे सब स्पर्श खड़े हो जाने दें अपने चारों ओर। और फिर खोजना शुरू करें कि क्या कोई ऐसा स्पर्श भी है जो बाहर से न आया हो? और थोड़े श्रम से, थोड़े ही संकल्प से आपको ऐसा स्पर्श प्रतीत होने लगेगा जो बाहर से नहीं आया है। जो चांद-तारों से नहीं मिल सकता, जो फूलों से नहीं, ओस से नहीं, जो सूर्य की ऊष्मा से नहीं, जो सुबह की ठंडी हवाओं के स्पर्श से नहीं। और जिस दिन आपको उस स्पर्श का बोध होगा, उसी दिन आपने भीतर का स्पर्श पाया। उसी दिन बाहर के स्पर्श व्यर्थ हो जाएंगे। फिर प्रत्येक व्यक्ति को वही इंद्रिय पकड़ लेनी चाहिए जो उसकी सर्वाधिक तीव्र और सजग हो। ___ यहां भी आपको मैं यह कह दूं कि जो इंद्रिय आपकी सबसे ज्यादा तीव्र है, उसे आप दुश्मन बना लेते हैं, अगर आपने संयम का निषेधात्मक रूप समझा। अगर आपने विधायक रूप समझा तो जो इंद्रिय आपकी सर्वाधिक सक्रिय है, वही आपकी मित्र है। क्यों आप उसी के द्वारा भीतर पहुंच सकेंगे। अब जिस आदमी को रंगों में कोई रस नहीं है, जिसने अभी बाहर के रंगों को भी नहीं जीया,
और न जाना, उसे भीतर के रंग तक पहुंचने में बड़ी कठिनाई होगी। जिस आदमी को संगीत में कुछ प्रयोजन नहीं मालूम होता, सिर्फ मालूम होता है शोरगुल-ज्यादा से ज्यादा व्यवस्थित शोरगुल, आवाजें, ध्वनियां; ज्यादा से ज्यादा कम से कम परेशान करने वाली
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