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महावीर-वाणी
भाग : 1
योगी अपनी जीभ को उल्टा कर लेते हैं। लेकिन वह केवल सिम्बालिक है। लेकिन कुछ पागल अपनी जीभ के नीचे के हिस्से को काटकर उल्टा करने में लगे रहते हैं। यह सिर्फ सिम्बालिक है, यह सिर्फ प्रतीक है। साधक अपनी जीभ को उल्टा कर लेता है, उसका अर्थ यह है कि जीभ का जो रस बाहर पदार्थों से जुड़ता था, उसे वह भीतर आत्मा से जोड़ लेता है। साधक अपनी आंख उल्टी चढ़ा लेता है, उसका कल अर्थ इतना ही है कि वह जो देखता था बाहर, अब वह भीतर देखने लगता है। और एक बा जाए तो बाहर के सब स्वाद बेस्वाद हो जाते हैं। करने नहीं पड़ते, करने से तो कभी नहीं होते, करने से तो उनका स्वाद और बढ़ता है। या जिद्द की जाए तो कुंठित हो जाता है, रस ही मर जाता है। लेकिन इंद्रिय बाहर की तरफ ही पड़ी रहती है। इंद्रियों को भीतर की तरफ मोड़ना संयम की प्रक्रिया है।
कैसे मोड़ेंगे? कभी छोटे-से प्रयोग करें तो खयाल में आना शुरू हो जाएगा। बैठे हैं घर में, सुनना शुरू करें बाहर की आवाजों को...सुनना शुरू करें बाहर की आवाजों को। बहुत जागरूक होकर सुनें कि कान क्या-क्या सुन रहा है। सभी चीजों के प्रति जागरूक हो जाएं। रास्ते पर गाड़ियां चल रही हैं, हार्न बज रहे हैं, आकाश से हवाई जहाज गुजरता है, लोग बात कर रहे हैं, बच्चे खेल रहे हैं, सड़क से लोग गुजर रहे हैं, जुलूस निकल रहा है—सारी आवाजें हैं, उसके प्रति पूरी तरह जाग जाएं। और जब सारी आवाजों के प्रति पूरी तरह जागे हों तब एक बार यह भी खयाल करें कि कोई ऐसी भी आवाज है, जो बाहर से न आ रही हो, भीतर पैदा हो रही हो। और तब आप एक अलग ही सन्नाटे को सुनना शुरू कर देंगे। इस बाजार की भीड़ में भी एक आवाज है, जो भीतर भी पूरे समय गूंज रही है।
लेकिन हम बाहर की भीड़ की आवाज में इस बुरी तरह से संलग्न हैं कि वह भीतर का सन्नाटा हमें सुनाई नहीं पड़ता। सारी आवाजों को सुनते रहें, लड़ें मत, हटें मत, सुनते रहें। सिर्फ एक खोज और भीतर शुरू करें कि क्या इन आवाजों को, जो बाहर से आ रही हैं; कोई इन आवाजों में एक ऐसी आवाज भी है जो बाहर से न आ रही हो, भीतर से पैदा हो रही हो? और आप बहुत शीघ्र सन्नाटे की आवाज, जैसी कभी-कभी निर्जन वन में सुनाई पड़ती है, ठेठ बाजार में सड़क पर भी सुनने में समर्थ हो जाएंगे। सच तो यह है कि जंगल में जो आपको सन्नाटा सुनाई पड़ता है, वह जंगल का कम बाहर की आवाजों के हट जाने के कारण आपके भीतर की आवाज का प्रतिफलन ज्यादा होता है। वह सुना जा सकता है। जंगल में जाने की जरूरत नहीं है। दोनों कान भी हाथ से बंद कर लें, तो वही आवाज बाहर की बंद हो जाएगी, तो भीतर जैसे झींगुर बोल रहे हों, वैसा सन्नाटा भीतर गूंजने लगेगा। यह पहली प्रतीति है भीतर के आवाज की।
और इसकी प्रतीति जैसे ही होगी वैसे ही बाहर की आवाजें कम रसपूर्ण मालम पडने लगेंगी। यह भीतर का संगीत आपके रस को पकड़ना शुरू हो जाएगा। थोड़े ही दिनों में यह भीतर जो सन्नाटे की तरह मालूम होता था, वह सघन होने लगेगा और रूप लेने लगेगा। यही सन्नाटा सो हं जैसा धीरे-धीरे प्रतीत होने लगता है। जिस दिन यह सो हं जैसा प्रतीत होने लगता है, उस दिन कोई संगीत, जो बाहर के वाद्यों से पैदा होता है, उसका मुकाबला नहीं कर सकता। यह अंतर की वीणा के वाद्यों से पैदा होता है, उसका मुकाबला नहीं कर सकता। यह अंतर की वीणा का संगीत आपकी पकड़ में आना शुरू हो गया। अब आपको अपने कान के रस को रोकना न पड़ेगा। आपको यह न कहना पड़ेगा कि मैं अब सितार न सुनूंगा। मैं सितार का त्याग करता हूं। नहीं, अब छोड़ने की कोई जरूरत न रहेगी आप अचानक पाएंगे कि और भी विराट, और भी श्रेष्ठतर, और भी गहन संगीत उपलब्ध हो गया। और तब आप सितार के सनने में भी इस संगीत को सुन पाएंगे। तब कोई विपरीत, कोई विरोध, कोई कंट्राडिक्शन नहीं रह जाएगा। तब बाहर का संगीत अंतर के संगीत की फीकी प्रतिध्वनि रह जाएगा। दुश्मनी नहीं रह जाएगी, फीकी प्रतिध्वनि रह जाएगी। और तब आपके भीतर अखण्ड व्यक्तित्व खड़ा होगा जो बाहर और भीतर का फासला भी नहीं करेगा।
एक घड़ी आती है, ऐसी कि जैसे-जैसे हम भीतर जाते हैं, बाहर और भीतर का फासला गिरता चला जाता है। एक घड़ी आती है कि
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