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________________ महावीर-वाणी भाग : 1 आग्रहपूर्ण हो जाते हैं। और उनके आग्रह खतरनाक हो जाते हैं। ___ एक बहुत बड़े जैन पंडित मुझे मिलने आये थे। उन्होंने स्यातवाद पर किताब लिखी है, इस अनेकांत पर किताब लिखी है। मैं उनसे बात कर रहा था। मैं उनसे बात करता रहा। मैंने उनसे कहा कि स्यातवाद का तो अर्थ ही होता है कि शायद ठीक हो, शायद ठीक न हो। उन्होंने कहा- हां। फिर थोड़ी बातचीत आगे बढ़ी। जब वे भूल गये तो मैंने उनसे पूछा लेकिन स्यातवाद तो पूर्ण रूप से ठीक है या नहीं, एब्सल्यूटली? उन्होंने कहा- एब्सल्यूटली ठीक है, पूर्णरूप से ठीक है। स्यातवाद पर किताब लिखनेवाला आदमी भी कहता है कि स्यातवाद पूर्णरूप से ठीक है। इसमें कोई गलती नहीं है, इसमें कोई भूल हो ही नहीं सकती। यह सर्वज्ञ की वाणी है। महावीर को मानने वाला कहता है- सर्वज्ञ की वाणी है, इसमें कोई भूल-चूक है नहीं, यह बिलकुल ठीक है—एब्सल्यूटली, पूर्णरूपेण, निरपेक्ष । और महावीर जिंदगीभर कहते रहे कि पूर्ण सत्य की अभिव्यक्ति हो ही नहीं सकती। जब भी हम सत्य को बोलते हैं, तभी वह अपूर्ण हो जाता है— बोलते ही अपूर्ण हो जाता है। वक्तव्य देते ही अपूर्ण हो जाता है। कोई वक्तव्य पूर्ण नहीं हो सकता। क्योंकि वक्तव्य की सीमाएं हैं— भाषा है, तर्क है, बोलनेवाला है, सुननेवाला है- ये सब सीमाएं हैं। जरूरी नहीं है कि जो मैं बोलूं, वही आप सुनें। जरूरी नहीं है कि जो मैं जानूं वही मैं बोल पाऊं, और जरूरी नहीं है कि जो मैं बोल पाऊं वह वही हो जो मैं बोलने की कोशिश कर रहा हूं। यह जरूरी नहीं है। तत्काल सीमाएं लगनी शुरू हो जाती हैं क्योंकि वक्तव्य समय की धारा में प्रवेश करता है और सत्य समय की धारा के बाहर है। ऐसे ही जैसे हम एक लकड़ी को पानी में डालें तो वह तिरछी दिखाई पड़ने लगे, बाहर निकालें तो सीधी हो जाए। महावीर कहते हैं ठीक जैसे ही हम भाषा में किसी सत्य को डालते हैं, वह तिरछा होना शुरू हो जाता है। भाषा के बाहर निकालते हैं, द्ध शून्य में ले जाते हैं वह पूर्ण हो जाता है। लेकिन जैसे ही वक्तव्य देते हैं वैसे ही- इसलिए महावीर कहते हैं- कोई भी वक्तव्य स्यात के बिना न दिया जाए। कहा जाए कि शायद सही है। यह अनिश्चय नहीं है, यह केवल अनाग्रह है। यह अन-सटॅनिटी नहीं है। यह कोई ऐसा नहीं है कि महावीर को पता नहीं है। महावीर को पता है लेकिन इतना ज्यादा पता है, इतना साफ पता है कि यह भी उन्हें पता चलता है कि वक्तव्य धुंधला हो जाता है। महावीर की अहिंसा का जो अंतिम प्रयोग है, वह अनाग्रहपूर्ण विचार है। विचार भी मेरा नहीं है, तभी अनाग्रहपूर्ण हो जाएगा। जिस विचार के साथ आप लगा देंगे मेरा, उसमें आग्रह जुड़ जाएगा। न धन मेरा है, न मित्र मेरे हैं, न परिवार मेरा है, न विचार मेरा है, न यह शरीर मेरा है, न यह जीवन, जिसे हम कहते हैं, यह मेरा है-यह कुछ भी मेरा नहीं है। जब इन सब 'मेरे' से हमारा फासला पैदा हो जाता है, गिर जाते हैं ये 'मेरे', तब मैं ही बच रह जाता हूं- अलोन, अकेला। और जो वह अकेला मैं का बच जाना है, उसकी प्रक्रिया है, अहिंसा। अहिंसा प्राण है, संयम सेतु है और तप आचरण है। कल हम संयम पर बात करेंगे। आज इतना ही। लेकिन अभी कोई जाए न। संन्यासी महावीर के स्मरण में धुन करते हैं, उसमें सम्मिलित हों। 90 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001820
Book TitleMahavira Vani Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1998
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size12 MB
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