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________________ कर्णावृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका २३ वर्षस्य प्रथममासे श्रावणनामध्ये बहुलप्रतिपद्दिनेऽभिजित नक्षत्रे धर्मतीर्थस्योत्पत्तिश्च । कालविशेषेण वर्द्धमानस्वामिनोऽर्थकर्तृत्वं निरूपितम् । गोणावरण पहुडिय णिच्छ्यववहारपाय अदिसयए । संजा देण अनंतंण्णाणेण दंसणेण सोक्खेणं ॥ ६२ ॥ | विरिएण तहा खाइय सम्मत्तणं पि दाणला हेहि । भोगोपभोग णिच्छयववहारेहि च परिपुष्णो ॥ ६३॥ ज्ञानावरणप्रभृतीनां निश्चयव्यवहारापायातिशयेन संजातानन्तज्ञानदर्शन सुखवीर्यैस्तर्थे क्षायिक सम्यक्त्वदानलाभ भोगोपभोगनिश्चयव्यवहारैश्च परिपूर्णः ॥ "दंसणमोहे गट्टे घादित्तिदये चरितमोहम्मि । सम्मत्तणाणदंसणवीरियचरिया य होंति खइयाई ॥ ६४ ॥ १० दर्शन मोहे घातित्रितये चारित्रमोहे नष्टे यथासंख्यं सम्यक्त्वं ज्ञानदर्शनवीर्याणि चारित्रं च क्षायिकाणि भवन्ति ॥ जादे अतणाणे णट्ठे छदुमठिदम्हि णाणम्मि । वविधपदत्यसारा दिव्वझुणी कहइ सुत्तत्थं ॥ ६५॥ अनन्तज्ञाने जाते सति छपस्थिते ज्ञाने नष्टे सति नवविधपदार्थसारो दिव्यध्वनिः कथयति १५ सूत्रार्थम् ॥ गुणेहि जुत्तो विसुद्ध चारित्तो । भवभयभंजण "दच्छो महवोरो अत्थकत्तारो ॥३६॥ अन्येरेने तैर्युक्तो विशुद्धचारित्रो भवभवभञ्जनदक्षो महावीरोऽर्थक र्त्ता ॥ द्वादशसभासेवितो भगवान् श्रीवर्द्धमानतीर्थंकरपरमदेवः, ग्रन्थकर्ता तदर्थज्ञानविज्ञानसप्तद्धसमृद्ध गौतमस्वामी, २० पन्द्रह दिन शेष रहने पर वर्षके प्रथम मास श्रावणके कृष्णपक्ष की प्रतिपदा के दिन अभिजित नक्षत्र में धर्मतीर्थ की उत्पत्ति हुई ||६०-६१ || यह कालकी अपेक्षा वर्धमान स्वामीके अर्थकर्ता होनेका कथन किया । ज्ञानावरण आदि निश्चय और व्यवहार रूप पापकर्मीका अत्यन्त विनाश होनेसे प्रकट हुए अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख, और अनन्तवीर्य तथा क्षायिक सम्यक्त्व, २५ दान, लाभ,भोग, उपभोग इन निश्चय और व्यवहाररूप लब्धियोंसे परिपूर्ण ||६२-६३ ॥ दर्शनमोह, चारित्रमोह, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मके नष्ट होनेपर क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक ज्ञान, क्षायिक दर्शन और क्षायिक चारित्र होते हैं || ६४ || अनन्त ज्ञानके प्रकट होनेपर और छद्मस्थ ज्ञानके नष्ट होनेपर नौ प्रकारके पदार्थों के सारको लिये हुए दिव्यध्वनि सूत्रार्थको कहती है ||६५ || अन्य भी अनन्त गुणोंसे युक्त, विशुद्ध चारित्रसे सम्पन्न तथा संसारके भयका विनाश करने में प्रवीण भगवान् महावीर अर्थकर्ता हैं ||६६ || १. पि. १७१-७२ । क णाणवरण । ५. ति प १।७३ । ६. कक्षायीणि । १०. त्यो, दत्त ।११. Jain Education International ५ २. मतं जाणाणं । ३. म तेणापि । ७. ति प १।७४ । ८. कसा । o For Private & Personal Use Only ४. म वीर्यस्तथा । ९. ति प १७५ । ३० ३५ www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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