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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ५०१ -२।१ मत्तमंते देवगतियोळु लोभकषायिगळु संदृष्टि । ६४ देवमायाकषायिगळु ४.६५=१०८५ । = १ । १६ देवमानकषायिगळु १४ देवक्रोधकषामिगळु = ३ । १ ४। ६५%21८५ ४।६५ = १८५ ४।६५%21८५ णरतिरिय लोहमाया कोहो माणो विइंदियादिव्व । आवलि असंखभज्जा सगकालं वा समासेज्ज ॥२९८॥ नरतिय॑ग्लोभमायाक्रोधमानाः द्वीन्द्रियादिवत् । आवल्यसंख्या भाज्याः स्वकालं वा ५ समाश्रित्य ॥ मनुष्यतिर्यग्गतिगळोळु लोभमायाक्रोधमानकषायपरिणतजीवसंख्यगळु द्वींद्रिय त्रींद्रियचतुरिद्रिय पंचेंद्रियजीवसंख्यानयनप्रकारदिदं तरल्पडुववल्लि मनुष्यगतियोळ मनुष्यजीवराशियं संस्थापिसि बहुभागे समभागो चउण्हमित्यादिसूत्रोक्तविधानदिदं । मतं तिर्यग्गतियोळं अकषाय wwwwwwwww कषायिणः - , २ , १ तथा देवगतौ लोभकषायिणः = १, ६४ देवमायाकषायिणः ४,६५ = १,८५ ८५ = १,१६ देवमानकषायिणः = १,४ देवक्रोधकषायिणः = ११ ॥२९७॥ १० ४, ६५ = १,८५ ४, ६५ -१,८५ मनुष्यतिर्यग्गत्योर्लोभमायाक्रोधमानकषायपरिणतजीवसंख्या द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियपश्चेन्द्रियजीवसंख्यानयनप्रकारेणानेतन्या। तत्र मनुष्यगतौ अकषायसंख्योनमनुष्यजीवराशि संस्थाप्य बहभागे समभागो वालोंका परिमाण हुआ। सोलहसे गुणा करनेपर ३२० हुए सो मानवालोंका परिमाण हुआ। चौंसठसे गुणा करनेपर बारह सौ अस्सी हुए। यह क्रोधवालोंका परिमाण हुआ। इसी तरह देवगतिमें भी जानना । यदि देवगतिकी भी संख्या १७०० ही मान लें तो लब्ध बीसको १५ एकसे गुणा करनेपर २० क्रोध कषायवालोंका, ४ से गुणा करनेपर ८० मान कषायी देवोंका, सोलहसे गुणा करनेपर तीन सौ बीस मायाकषायी देवोंका और चौंसठसे गुणा करनेपर बारह सौ अस्सी लोभकषायी देवोंका परिमाण होता है ।।२९७॥ मनुष्यगति और तिर्यंचगतिमें लोभ, माया, क्रोध और मान कषायरूप परिणत जीवोंकी संख्या जैसे पहले इन्द्रिय मागणामें दोइन्द्रिय, तेइद्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों- २० की संख्या निकाली थी उसी प्रकार लाना चाहिए। सो मनुष्यगतिमें मनुष्योंके परिमाणमें से कषायरहित मनुष्योंके परिमाणको कम करके जो शेष बचे उतनी संख्या स्थापित करने उसमें आवलीके असंख्यातवें भागसे भाग देकर एक भागको अलग रखना चाहिए और शेष बहुभागके चार भाग करके चारों कषायवालोंमें समान देना चाहिए। फिर अलग रखे एक भागमें आवलीके असंख्यातवें भागका भाग देकर एक भागको अलग रख बहुभाग लोभ २५ कषायवालोंको दिये समान भागमें मिलानेपर लोभ कषायवाले मनुष्योंका परिमाण होता है। अलग रखे एक भागमें आवलीके असंख्यातवें भागसे भाग देकर एक भागको अलग रख, शेष बहुभागको मायाकषायवालोंको मिले समान भागमें मिलानेपर माया कषायी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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