SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 547
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ४८९ युष्यमा दे कट्टल्पडुगुमेंदितु वोदो दंकगळे वरयल्पदृवु। मत्तमा कृष्णनीलकपोतलेश्यात्रयरहितशुभलेश्यात्रयस्थानंगळोळ केलवरोळु देवायुष्यमोदे कट्टल्पडुवुदे दितेकांकमे बरेयल्पद्रुदल्लिये देवायुय॒च्छियक्कं मत्तमा शुभलेश्यात्रयस्थानंगळोळु मुंद केलवरोळु तीवविशुद्धियुक्तंगळोळमावायुष्यं कट्टल्पडदे दितु शून्यं बरेयल्पदुदु । लेश्यात्रयतीव्रतरविशुद्धविशिष्टपरिणामक्कायुबंधहेतुत्वासंभवमप्पुरिदं। सुण्णं दुगइगिठाणे जलम्मि सुण्णं असंखभजिदकमा। चउ चोद्दसवीसपदा असंखलोगा हु पत्तेक्कं ॥२९॥ शून्यं द्विकैकस्थानयोजले खलु शून्यमसंख्यभाजितक्रमाणि। चतुश्चतुर्दशविंशतिपदानि असंख्यलोकानि खलु प्रत्येकं ॥ तत्र धूलीरेखासदृशशक्तियुक्तस्थानंगळोळु तेजोलेश्यारहितशुभलेश्याद्वयस्थानंगळोळं १० केवलशुक्ललेश्यायुक्तस्थानंगळोळमुमायुष्यमावुई कट्टल्पडद दितरडेडयोळं शून्यंगळु बरेयल्पटुवु । अदं नोडलनंतगुणविशुद्धिवृद्धियुक्तजलरेखासदृशशक्तिविशिष्टशुक्ललेश्यास्थानंगळोळमावायुष्यमं कट्टल्पडदें दितु शून्यं बरेयल्पद्रुदु । तीव्रतमविशुद्धिविशिष्टशुक्ललेश्योत्कृष्टस्थानंगळोळतिशयदिदमायुबंधहेतुत्वाभावदत्तणिदं। इंतु पेळल्पट्ट कवायंगळ नाकुं शक्तिस्थानंगळु चतुद्देशलेश्यास्थानंगळं विंशत्यायुबंधाबंधगतस्थानंगळुमेल्लमुं असंख्यातलोकमात्रंगळप्पुवुमंतादोडमुत्कृष्ट- १५ रहितलेश्यापञ्चकस्थानेषु कृष्णनीललेश्याद्वयरहितलेश्याचतुष्कस्थानेषु च देवायुरेकमेव बध्यते । इत्येकैकोङ्को लिखितः । पुनस्तत्रैव कृष्णनीलकपोतलेश्या त्रयरहितशुभलेश्यात्रयस्थानेषु केषुचिदेवायुरेकमेव बध्यते इत्येकाको लिखितः । तत्रैव देवायुयुच्छिद्यते । पुनस्तच्छुभलेश्यात्रयस्थानेषु अग्रे केषुचित्तोवविशुद्धियुक्तेषु किमप्यायुर्न बध्यते इति शून्यं लिखितम् । शुभलेश्यात्रयतीव्रतरविशुद्धिविशिष्टपरिणामस्य आयुर्बन्धहेतुत्वासंभवात् ।।२९४॥ - तत्रैव ध लिरेखासदशशक्तियक्तस्थानेष केचित तेजोलेश्यारहितशभलेश्याययक्तेष केवलगक्ललेश्यायुक्तेषु च किमप्यायुर्न बध्यते इति स्थानद्वये शून्यं लिखितं । ततोऽनन्तगुणविशुद्धिवृद्धियुक्तजलरेखासदृशशक्तिविशिष्टशुक्ललेश्योत्कृष्टस्थानेष्वपि किमप्यायुर्न बध्यते इति शून्यं लिखितं, तीव्रतमविशुद्धि विशिष्टशुक्ललेश्योत्कृष्टस्थानेषु अतिशयेन आयुर्बन्धहेतुत्वाभावात् । एवं कथितानि कषायाणां चत्वारि शक्तिस्थानानि चतुर्दशयुक्त कृष्ण लेश्या रहित पाँच लेश्यावाले स्थानोंमें, और कृष्ण-नील लेश्या रहित चार लेश्यावाले स्थानोंमें एक देवायु ही बंधती है। इसलिए एक-एकका अंक लिखा है। पुनः उसीके २५ कृष्ण, नील, कापोत लेश्यासे रहित तीन शुभलेश्यावाले स्थानों में से कुछमें एक देवायु ही बँधती है, इसलिए एकका अंक लिखा है । देवायुका बन्ध यहीं तक होता है । पुनः उन तीन शुभ लेश्यावाले स्थानोंमें-से आगेके तीव्र विशुद्धियुक्त कुछ स्थानोंमें किसी भी आयुका बन्ध नहीं होता, इसलिए शून्य लिखा है। क्योंकि तीन शुभलेश्या सम्बन्धी तीव्रतर विशुद्धि विशिष्ट परिणामवालेके आयुबन्धका कारण नहीं है ।। २९४॥ धूलिरेखाके समान शक्तिसे युक्त, तेजोलेश्याके बिना दो शुभ लेश्यावाले तथा केवल शक्ललेश्यावाले कुछ स्थानोंमें किसी भी आयुका बन्ध नहीं होता। इसलिए दोनों स्थानों में शन्य लिखा है। उससे अनन्तगुणी विशुद्धि वृद्धिसे युक्त तथा जलरेखाके समान शक्ति विशिष्ट शुक्ललेश्याके उत्कृष्ट स्थानोंमें भी किसी आयुका बन्ध नहीं होता। इसलिए शून्य लिखा है। क्योंकि तीव्रतम विशुद्धि विशिष्ट शुक्ललेश्याके उत्कृष्ट स्थान आयुबन्धके कारण नहीं होते। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy