SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 536
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४७८ गो० जीवकाण्डे वेणुवमूलोरब्भयसिंगे गोमुत्तए य खोरुप्पे । सरिसी माया णारयतिरियणरामरगईसु खिवदि जियं ।।२८६।। वेणूपमूलोरभ्रकशृंगेण गोमूत्रेण च क्षुरप्रेण । सदृशी माया नरकतिर्यग्नरामरगतिषु क्षिपति जीवं॥ वेणूपमूलोरभ्रकशृंगगोमूत्रक्षुरप्रसदृशोत्कृष्टादिशक्तियुक्तमप्प माया वंचने यथाक्रमं नारकतिर्यग्नरामरगतिगळोळ जीवननिक्कुगुमदते दोडे वेणूपमूलमें बुदु वेणूपमूलग्रंथियक्कुं अदरोडने समानोत्कृष्टशक्तियुक्तमायाकषायं जीवनं नरकगतियोळिक्कुगुं । उरभ्रक बुदु मेषमदरशृंगसदृशानुत्कृष्टशक्तियुक्त मायाकषाय जीवनं ति-ग्गतियोलिक्कुगुं। गोमूत्रसमानाजघन्यशक्तियुक्त मायाकषायं जीवनं मनुष्यगतियोळिक्कुगुं । क्षुरप्रसमानजघन्यशक्तियुक्तमायाकषायं जीवनं देवगतियोळिक्कुगुमे तोगळु वेणूपमूलादिगळु चिरतरादिकालदिनल्लदे तंतम्म वक्रतयं परिहरिसि ऋजुत्वमनेय्दुवंते जीवनुमुत्कृष्टादिशक्तियुक्तमायाकषायपरिणतनुमंतप्प कालंगाळदमल्लदे तंतम्म वक्रतयं परिहरिसि ऋजुपरिणामियागर्ने दितु सादृश्यं युक्तमक्कुं । तत्तदुत्कृष्टादिशक्तियुक्तमायाकषायपरिणतजीवं ततद्गतिक्षेपकारण तत्तदायुगत्यानुपूविनामादिकर्मबंधकनक्कुमें बुदु तात्पर्य्यात्थं । वेणूपमूलोरभ्रकशृङ्गगोमूत्रक्षुरप्रसदृशीत्कृष्टादिशक्तियुक्ता माया-वञ्चना यथाक्रम नारकतिर्यग्नरामरगतिषु जीवं निक्षिपति । तद्यथा-वेणपमूलं वेणमलग्रन्थिः तेन समानोत्कृष्टशक्तियुक्तमायाकषायो जीवं नरकगतौ निक्षिपति । उरभ्रकः-मेषः, तच्छृङ्गसदृशानुत्कृष्टशक्तियुक्तमायाकषायः जीवं तिर्यग्गती निक्षिपति । गोमूत्रसमानाजघन्यशक्तियुक्तमायाकषायो जीवं मनुष्यगतौ निक्षिपति क्षुरप्रसमानजघन्यशक्तियुक्तमायाकषायो जीवं देवगतौ निक्षिपति । यथा वेणपमूलादयः चिरतरादिकालं विना स्वस्ववक्रतां परिहृत्य ऋजुत्वं न प्राप्नुवन्ति तथा जीवोऽपि उत्कृष्टादिशक्तियुक्तमायाकषायपरिणतः तथाविधकालैविना स्वस्ववक्रतां परिहत्य ऋजुपरिणामो न स्यात् इति सादृश्यं युक्तम् । तत्तदुत्कृष्टादिशक्तियुक्तमायाकषायपरिणतजीवः तत्तद्गतिक्षेपकारणं तत्तदायुर्गत्यानुपूर्व्यादिकर्म बध्नाति । इति तात्पर्यार्थः ॥२८६॥ बाँसकी जड़, मेढ़ेके सींग, गोमूत्र तथा खुरपाके समान उत्कृष्ट आदि शक्तिसे युक्त माया जीवको यथाक्रम नरकगति, तिथंचगति, मनुष्यगति और देवगतिमें उत्पन्न कराती २५ है । स्पष्टीकरण इस प्रकार है-बाँसकी जड़के समान उत्कृष्ट शक्तिसे युक्त माया कषाय जीवको नरकगतिमें उत्पन्न कराती है। मेढ़ेके सींगके समान अनुत्कृष्ट शक्तिसे युक्त माया कषाय जीवको तियचगतिमें उत्पन्न कराती है। गोमूत्रके समान अजघन्य शक्तिसे युक्त माया कषाय जीवको मनुष्यगतिमें उत्पन्न कराती है। तथा खुरपेके समान जघन्य शक्तिसे युक्त माया कषाय जीवको देवगतिमें उत्पन्न कराती है। जैसे बाँसकी जड़ वगैरह चिरतर आदि कालोंके बिना अपने-अपने टेढ़ेपनेको छोड़कर सरलतासे सीधेपनेको प्राप्त नहीं होते, वैसे ही उत्कृष्ट आदि शक्तिसे युक्त माया कषायरूप परिणत जीव भी उस प्रकारके कालोंके बिना अपनी वक्रताको छोड़कर सरल परिणामी नहीं होता। इस प्रकार समानता योग्य है। इसका आशय यह है कि उस-उस उत्कृष्ट आदि शक्तिसे युक्त माया कषाय रूप परिणत जीव उस-उस गतिमें ले जानेमें निमित्त उस-उस आयु, गति और आनुपूर्वी आदि कर्मोंको ३५ बाँधता है ॥२८६।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy