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________________ ४०० १०० ८ । २५ २ ५ मिदं दोगुणहानियिदं गुणिसुत्तिरलु चरमगुणहानिप्रथम निषेकप्रमाणमक्कु १६ मिल्लिदं मेले मेले तन्नेकैकचयहीनक्रर्मादिदं पोगि चरमनिषेकदोळु रूयोनगच्छमात्रचयही नमप्पुर्दारदं रूपाधिकगुणहानि गुणित स्वप्रचयप्रमाण ११९॥ चरम निषेकमक्कु ९ । मितु द्वितीयादिगुणहानिग गुणहीनक्रमं चरम गुणहानिपर्यंतं काणल्पटुर्दारवं गुणहानित्वमन्वर्त्यमक्कं । प्रथमगुणहानिगे तु गुणहानित्वमेनवडे दोडे मुख्यमप्प गुणहानित्वमिल्लदिद्दोडं मेलणगुणहानित्वक्क निमित्तमत्य १० प्राग्वद्गुणहान्या भक्ते लब्धं मध्यमधनं १०० । इदं रूपोनगुणहान्यर्धहीन दोगुणहान्या भक्तं सत्तच्चरमगुण ८ २० गो० जीवकाण्डे निषेकदोळ रूपोनगच्छमात्रचयहीनमप्पुर्दारदं रूपाधिकगुणहानिगुणितस्वविशेषप्रमाणमक्कु ८८ मिदं गुणिसिदोडितिक्कु ७२ मिती क्रमदिदं पोगि चरमगुणहानिद्रव्य १०० मिदं मुन्निनंत गुणहानियिदं भागिसिदोडे लब्धं मध्यमधनमक्कु १०० मदं रूपनगुणान्यर्द्धही दोगुण ८ हानिय भागिसुत्तिरलु चरमगुणहानि संबंधिगच्छमक्कु मदनपतसिदोडितिक्कु १ ३० १६ । तदुपरि निजैकैकचयहीनक्रमेण गत्वा चरमस्थितिनिषेक रूपो नगच्छमात्रचयहीनं भवतीति रूपाधिकगुणहानिगुणितनिजप्रचयप्रमाणं १ । ९ चरमनिषेको भवति । एवं द्वितीयादिद्विगुणहानिषु चरमगुणहानिपर्यन्तासु गुणहीनक्रमो दृश्यते ततो गुणहानिरन्वर्थनामा स्यात् । तर्हि प्रथमगुणहानेः कथं गुणहानित्वमिति चेत्तन्न, १५ मुख्यत्वेन गुणहानित्वाभावेऽपि उपरितनीनां गुणहानिनिमित्तभूतविशेषहीनत्वस्य सद्भावात् तस्या उपचारेण हानिसम्बन्धिचयः १०० अपवर्तितोऽयं १, दोगुण ८ हान्या गुणितः चरमगुणहानिप्रथमनिषेकप्रमाणं भवति ८ । २५ २ हीन दो गुणहानिका भाग देनेपर १०० - २३२ = चय ८ होता है। इस चयको दो गुणहानिसे गुणा करनेपर १६x८ = १२८ प्रथम निषेकका प्रमाण होता है। इसमें ऊपर-ऊपर अपना एकएक चय हीन करते-करते अन्तिम निषेकमें एक कम गच्छमात्र हीन होकर एक अधिक गुणहानिसे गुणित अपने चय प्रमाण अन्तिम निषेक ९४८ = ७२ होता है । इस प्रकार इसी क्रमसे जाकर अन्तिम गुणहानिके द्रव्य १०० को पहलेकी तरह गुणहानि ८ से भाग देनेपर मध्यम होता है । इसमें एक कम गुणहानिके आधेसे हीन दो गुणहानिका भाग देनेपर अन्तिम गुणहानिसम्बन्धी चय होता है । इसे अपवर्तित करनेपर चयका प्रमाण एक होता है । दो गुणहानिसे इसे गुणा करनेपर अन्तिम गुणहानिके प्रथम निषेकका प्रमाण १६ होता है । इससे अपना एक-एक चय क्रमसे हीन करते जाकर अन्तिम निषेक एक कम गच्छमात्र चयोंसे हीन होता है। इस प्रकार एक अधिक गुणहानिसे गुणित अपने चयप्रमाण ९x१ = ९ अन्तिम निषेक होता है । इस प्रकार द्वितीय आदि गुणहानिसे लेकर अन्तिम गुणहानि पर्यन्त द्रव्यादि गुणकाररूप हानिको लिये हुए होते हैं । इसलिए इनका नाम सार्थक है । शंका-तब पहली गुणहानिमें गुणहानिपना कैसे घटित होता है ? २५ १. दिगुणहानिपर्यन्तासु गुणहानिक्रमस्य दर्शनात् गुणं । २. मुख्यत्वेन गुणहानित्वं नास्ति तथापि उपरितनीनां गुणहानित्वनिमित्तभूतविशेषहीनत्वमस्तीति तस्या अप्युप- । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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