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________________ गोम्मटसार जीवकाण्ड स्व. डॉ. ए.एन. उपाध्ये के एक लेख का हिन्दी अनुवाद अनेकान्त वर्ष ४, कि. १, पृ. ११३ पर गोम्मटसार की जीवतत्त्वप्रदीपिका टीका, उसका कर्तृत्व और समय' शीर्षक से प्रकाशित हुआ था। उसमें विद्वान् लेखक ने विद्वानों में प्रचलित इस भ्रम का निवारण सप्रमाण किया था कि संस्कृत जीवतत्त्वप्रदीपिका टीका के कर्ता केशववर्णी हैं और उन्होंने किसी कर्णाटकवृत्ति के आधार पर उसे रचा है। इससे पूर्व में केशववर्णी की कर्णाटकवृत्ति से विद्वान् अपरिचित थे। डॉ. उपाध्ये ने ही अपने उस लेख में उससे उद्धरण उपस्थित करके उसके साथ में संस्कृत टीका की तुलना करते हुए संस्कृत टीका को उसकी अनुगामिनी बतलाया था। संस्कृत टीका के रचयिता ने, जिनका नाम नेमिचन्द्र है, अपनी टीका प्रारम्भ करते हुए प्रथम मंगल श्लोक कहा है नेमिचन्दं जिनं नत्वा सिद्धं श्रीज्ञानभषणम। वृत्तिं गोम्मटसारस्य कुर्वे कर्णाटवृत्तितः ॥ इसमें वह स्पष्ट कहते हैं कि मैं कर्णाटवृत्ति के आधार से गोम्मटसार की टीका करता हूँ। किन्तु वह कर्णाटवृत्ति किसकी है, उसका नाम क्या है; इसका निर्देश वह नहीं करते। परन्तु अपनी टीका के अन्त में वह लिखते हैं 'श्रित्वा कर्णाटकी वत्तिं वर्णिश्रीकेशवैः कताम। कतेयमन्यथा किंचित् विशोध्यं तद्बहुश्रुतैः ॥' - इसमें स्पष्ट कहा है कि केशववर्णीकृत कर्णाटकवृत्ति का आश्रय लेकर यह संस्कृत टीका रची गयी है। किन्तु भ्रम फैलने का कारण अशुद्ध पाठ है जो कलकत्ता संस्करण में छपा है। उसमें 'वर्णिश्रीकेशवैः कृतिः' छपा है। 'कृतां' के स्थान में कृतिः पाठ होने से यह भ्रम प्रवर्तित हुआ। पं. टोडरमलजी ने इसी का पद्यानुवाद किया है जो ऊपर दिया गया है-- इस पद्यानुवाद का भी यही अर्थ है कि केशववर्णी ने कर्णाटक टीका के अनुसार संस्कृत टीका रची है। उन्होंने अपनी टीका में अन्यत्र भी केशववर्णी को ही संस्कृत टीकाकार लिखा है। जीवकाण्ड कलकत्ता संस्करण, पृ. ७५५ पर उनकी टीका में स्पष्ट छपा है-केशववर्णी संस्कृत टीकाकार । पण्डित टोडरमलजी तो महाविद्वान् थे। उनके सामने भी 'वर्णिश्रीकेशवैः कृतिः' पाठ आया प्रतीत होता है। शुद्ध पाठ 'कृता' नहीं आया। उसी से यह भ्रम प्रवर्तित हुआ है; क्योंकि उन्हीं की टीका के आधार पर ही 'गोम्मटसार' का पठन-पाठन चला है। संस्कृत टीका का वाचन तो इस काल में किसी विरल ही विद्वान् ने किया हो। अब तो केशववर्णी की कर्नाटक टीका के प्रकाश में यह हस्तामलकवत स्पष्ट है कि जीवतत्त्वप्रदीपिका नामक संस्कृत टीका उनकी कृति नहीं है। किन्तु उनकी कर्णाटक वृत्ति का नाम भी जीवतत्त्वप्रदीपिका ही है जो प्रत्येक अधिकार के अन्त में आता है। संस्कृत टीकाकार ने उसे भी ज्यों का त्यों अपना लिया है। उसमें भी परिवर्तन नहीं किया, इससे भी भ्रम को बल मिल सका है। इस तरह वर्तमान में गोम्मटसार पर तीन टीकाएँ उपलब्ध हैं-अभयचन्द्राचार्यकृत मन्दप्रबोधिका, केशववर्णीकृत कर्नाटकवृत्ति और तदनुसारी संस्कृत टीका। इनमें से प्रथम अपूर्ण है। शेष दोनों परिपूर्ण हैं। किन्तु यह कहना ही उचित होगा कि 'गोम्मटसार' पर केवल एक ही टीका उपलब्ध है और वह हैं-जीवतत्त्वप्रदीपिका। उसका मूल रूप कुछ संस्कृत मिश्रित कर्नाटक भाषा में है। उसके कर्ता केशववर्णी हैं। उसी का संस्कृत रूपान्तर संस्कृत टीका है। उसमें केशववर्णी की टीका से नवीन कुछ भी नहीं है, किन्तु कहीं-कहीं उसमें प्रयुक्त गणितादिकी प्रक्रिया को संक्षिप्त ही कर दिया गया है। किन्तु उसके इस संस्कृत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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