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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका २५३ शक्तिनिष्पत्तिभाषापर्याप्तिये बुदक्क। मनोवर्गणायातपुद्गलस्कंधंगळनंगोपांगनामकर्मोदयबलाधादि द्रव्यमनोरूपदिदं परिणमियिसिसल्के आ द्रव्यमनोबलाधानदि नोइंद्रियावरणवीऱ्यांतरायक्षयोपशमविशेषदिदमुं गुणदोषविचारानुस्मरणप्रणिधानलक्षणभावमनःपरिणमनशक्तिनिष्पत्ति मनःपर्याप्तिय बुदु अक्कुं। पज्जत्ती पट्ठवणं जुगवं तु कमेण होदि णिट्ठवणं । अंतोमुहुत्तकालेणहियकमा तत्तियालावा ।।१२०।। पर्याप्तिप्रस्थापनं युगपत्पुनः क्रमेण भवति निष्ठापनमन्तर्मुहूर्त्तकालेनाधिकक्रमास्तावन्मात्रालापाः॥ समस्तस्वस्वयोग्यपर्याप्तिगळ्गे शरीरनामकर्मोदयप्रथमसमयदोळे युगपत्प्रारंभमक्कं । मत्तं तन्निष्ठापनंगळुमंतर्मुहूर्तदिनधिकक्रमंगळादोडं तावन्मात्रालापगळेयप्पुवुवेत दोडयाहार- १० पर्याप्तिनिष्पत्तिकालं सर्वतस्तोकमंतर्मुहूर्त्तकालमक्कु २१ । मिदं नोड शरीरपर्याप्तिकालं मनोवर्गणायातपुद्गलस्कन्धान् अङ्गोपाङ्गनामकर्मोदयबलाधानेन द्रव्यमनोरूपेण परिणामयितुं तद्रव्यमनोबलाधानेन नोइन्द्रियावरणवीर्यान्तरायक्षयोपशमविशेषेण च गुणदोषविचारानुस्मरणप्रणिधानलक्षणभावमनःपरिणमनशक्तिनिष्पत्तिमनःपर्याप्तिः ॥११९॥ समस्तस्व-स्वयोग्यपर्याप्तीनां शरीरनामकर्मोदयप्रथमसमये एव युगपत् प्रतिष्ठापनं प्रारम्भो भवति । १५ तु पुनः तन्निष्ठापनानि अन्तर्मुहूर्तेन क्रमेण तथापि तावन्मात्रालापेनैव भवन्ति । तद्यथा-आहारपर्याप्तिनिष्पत्तिभाषावर्गणाके रूपमें आये हुए पुद्गल स्कन्धोंको सत्य, असत्य, उभय और अनुभय भाषाके रूपमें परिणमानेकी शक्तिकी पूर्णताको भाषापर्याप्ति कहते हैं। मनोवर्गणाके रूपमें आये हुए पुद्गलस्कन्धोंको अंगोपांगनामकर्मके उदयकी सहायतासे द्रव्यमनोरूपसे परिणमानेके लिए तथा उस द्रव्य मनकी सहायतासे नोइन्द्रियावरण और वीर्यान्तरायके क्षयोपशम विशेषसे गुणदोषका विचार, स्मरण, प्रणिधानलक्षणवाले भावमन रूपसे परिणमन करनेकी शक्तिकी पर्णताको मनःपर्याप्ति कहते हैं ।।११९।। विशेषार्थ-शक्तिकी निष्पत्तिको पर्याप्ति कहते हैं। औदारिक आदि शरीरनामकर्मके उदयसे औदारिक आदि शरीररूप परिणमनके योग्य आहारवर्गणाके स्कन्ध आत्माके द्वारा गृहीत होकर समस्त आत्मप्रदेशोंमें एक क्षेत्रावगाहरूपसे स्थित होते हैं । वे पर्याप्तनामकर्मका २५ मन्द अनुभागोदय होनेसे लघु अन्तर्मुहूर्त काल तक आहार आदिकी शक्ति निष्पत्तिको उत्पन्न नहीं करते । अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् पर्याप्तनामकर्मका तीव्र अनुभागोदय होनेसे उस रूप परिणमनकी शक्ति निष्पत्तिको करते हैं। गाथामें आये 'च' शब्दसे लब्ध्यपर्याप्तक एकेन्द्रिय आदिके क्रमसे अपर्याप्तियाँ भी चार-पाँच और छह होती हैं ॥११९।। शरीरनामकर्मके उदयके प्रथम समयमें ही अपने-अपने योग्य समस्त पर्याप्तियोंका ३० प्रतिष्ठापन अर्थात् प्रारम्भ एक साथ होता है। किन्तु उनका निष्ठापन अर्थात् समाप्ति क्रमसे अन्तर्मुहूर्त कालमें होती है। जैसे, आहारपर्याप्तिकी निष्पत्तिका काल सबसे छोटा अन्तर्मुहूर्त मात्र है। उससे शरीरपर्याप्तिका काल उसके असंख्यातवें भाग अन्तर्मुहूर्तसे अधिक है तथा मिलकर भी अन्तर्मुहूर्त ही है। अर्थात् आहारपर्याप्ति के कालको संख्यातका भाग देनेसे जो १. म मिसल्के नो । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001816
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages564
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size13 MB
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